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________________ पूजा की सामग्री देखने में सुंदर लगे। जैसे- प्रत्येक वस्तु का उपयोग अच्छी तरह से करना, पूजन-सामग्री का दृश्य सुंदर बनाना, पूजा के समय शरीर को न खुजलाना, नाक से श्लेष्म न निकालना विकथा न करना आदि। आदरपूर्वक एवं सारभूत-स्तुति तथा स्तोत्रसहित चैत्यवंदन करने से भगवान का सम्मान होता है। पूजा करते समय स्तुतियों या स्तोत्रों के अर्थ का ज्ञान यदि है, तो परिणाम शुभ होता है, लेकिन जिनको अर्थ का ज्ञान नहीं होता उनका भी रत्नज्ञानन्याय से परिणाम शुद्ध ही होता है। जिस प्रकार ज्वर आदि का शमन करने वाले रत्नों के गुण का ज्ञान रोगी को नहीं होता है, फिर भी.रत्न उसके ज्वर को शांत कर देता है, उसी प्रकार भावरूपी रत्नों से युक्त स्तुति-स्तोत्र भी शुभंभाव वाले होने के कारण उनके अर्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी कर्मरूपी ज्वर आदि रोगों को दूर कर देते हैं। अतः शुभभाव प्रधान स्तुति-स्तोत्रपूर्वक ही चैत्यवंदन करना श्रेयस्कर है। चैत्यवंदनोपरांत प्रणिधान अर्थात् संकल्प करना चाहिए, जिससे धर्मकार्य में प्रवृत्ति होती है, उसमें आने वाले विघ्नों पर विजय होती है और शुरु किए गए कार्य की निर्विघ्न सिद्धि सम्भव होती है। प्रणिधान को हम निदान नहीं कह सकते हैं, क्योंकि निदान में लौकिक उपलब्धियों की आकांक्षा होती है, जबकि प्रणिधान में मात्र आत्मविशुद्धि की इच्छा होती है। प्रणिधान (संकल्प) करने से ही नियमतः इष्ट कार्य की सिद्धि होती है। प्रणिधान से ही धार्मिक अनुष्ठान भावरूप बन जाते हैं। प्रणिधान की विधि कुछ इस प्रकार है- सिर से हाथों की अंजलि लगाकर आदरपूर्वक निम्न प्रणिधान करना चाहिए- हे वीतराग! हे जगद्गुरु! आपकी जय हो! हे भगवन्! आपके प्रभाव से मुझे भवनिर्वेद, मार्गानुसारिता, इष्टफलसिद्धि, लोक विरुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग, गुरुजन पूजा, परार्थकरणं, सुगुरु की प्राप्ति हो और जब तक मोक्ष नहीं मिले, तब तक निरंतर गुरु-आज्ञा के पालन का मनोभाव प्राप्त हो। इस प्रकार प्रार्थनागर्भित प्रणिधान तभी तक योग्य है जब तक भवनिर्वेद की प्राप्ति नहीं होती। भवनिर्वेदादि गुणों की उपलब्धि के बाद मांग करने को कुछ भी नहीं रह जाता है। यदि कोई जीव तीर्थंकरों की समृद्धि देखकर या सुनकर उस समृद्धि को पाने की इच्छा से तीर्थंकर बनने की प्रार्थना करता है तो वह राग-युक्त है, क्योंकि उसमें उपकार करने की नहीं, अपितु समृद्धि प्राप्त करने की भावना होती है, जिससे तीर्थंकरत्व के बजाए पापकर्म बंध होता है, किंतु यह भी सच है कि लोकहित की भावना से तीर्थंकर बनने की इच्छा वाला जीव तीर्थंकर नामकर्म बांधकर अनेक जीवों का हितकारी बनता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो तीर्थंकर बनने की अभिलाषा अर्थापत्ति से धर्मदेशनादि, अनुष्ठान से प्रवृत्तिरूप है, इसलिए वह दोषरहित है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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