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________________ उचित मात्रा में दवा देने से लाभ होता है, उसी प्रकार सर्वकल्याणकारी वंदना विधि-योग्य जीवों को उनकी योग्यतानुसार विधिपूर्वक देनी चाहिए। चतुर्थ पंचाशक ब ___चतुर्थ पंचाशक में 'पूजाविधि' का वर्ण है, जिसके अंतर्गत पूजा का काल, शारीरिक शुचिता, पूजा-सामग्री, पूजा-विधि, स्तुति-स्तोत्र- इन पंचद्वारों का तथा प्रणिधान (संकल्प) और पूजा निर्दोषता का क्रमशः विवेचन किया गया है। सामान्यतया प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल में पूजा की जाती है, लेकिन आचार्य हरिभद्र ने यहां बताया है कि नौकरी, व्यापार आदि आजीविका के कार्यों से जब भी समय मिले तब पूजा करनी चाहिए। यह अपवादमार्ग है, क्योंकि आजीविका-अर्जन के समय पूजा करने से कल्याण की परम्परा का विच्छेद होता है, जिससे गृहस्थ-जीवन की सभी क्रियाएं अवरुद्ध हो जाएंगी, क्योंकि सम्पत्ति के अभाव में दान-पूजा आदि कुछ नहीं होगा, इसलिए जिस समय आजीविका सम्बंधी क्रियाओं में व्यवधान न पड़ता हो, उस समय पूजा करनी चाहिए। समय के अतिरिक्त पूजा के लिए शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि की भी आवश्यकता है। शुद्धि दो प्रकार की होती है- द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनना द्रव्यशुद्धि है और अपनी स्थिति के अनुसार नीतिपूर्वक प्राप्त धन से पूजा करना भावशुद्धि है। यद्यपि खेती, व्यापारादि से पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा होती है, फिर भी वह हिंसा नहीं मानी जाती है, क्योंकि उनका भाव हिंसा का नहीं होता, जिस प्रकार कुआं खोदने में बहुत से जीवों की हत्या होती है, किंतु कुआं खोदने या खुदवाने वाले का आशय हिंसा करना नहीं होता, बल्कि जल निकालना होता है। उसी प्रकार जिन-पूजा के लिए स्नान करने में थोड़ी हिंसा तो होती है, किंतु पूजा के फलस्वरूप पुण्य बंध होने से लाभ ही होता है। पूजा के आरम्भ का त्याग करने वाले गृहस्थ को लोक में जिनशासन की निंदा और अबोधि नामक दोष आते हैं। इसी प्रकार न्याय, नीति से रहित अशुद्ध जीविका के अर्जन से भी दोष लगते हैं। अतः द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि- दोनों प्रकारों की शुद्धिपूर्वक पूजा करने का विधान है। पूजा करने के लिए सुगंधित पुष्प, धूप आदि सुगंधित औषधियों तथा विभिन्न जलों (इक्षुरस, दूध, घी आदि) से जिनप्रतिमा को स्नान कराकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार पूजा करनी चाहिए। इहलौकिक और पारलौकिक कार्यों में पारलौकिक कार्य प्रधान होता है। जिनपूजा पारलौकिक कार्य है, अतः जिनपूजा में उत्तम साधनों अर्थात् द्रव्यों के उपयोग का सर्वोत्तम स्थान है। पूजा इतने आदर से करनी चाहिए कि चढ़ाई गई
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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