________________ पांचों के प्रति सजगता कैसे हो सकती है? उत्तर में हरिभद्र कहते हैं कि उस एक विषय के अतिरिक्त अन्य विषय भी वहां उपस्थित होते हैं और क्रमिक रूप से सभी के प्रति उपयोग रहता है। जिस प्रकार मूल ज्वाला से नई-नई ज्वालाएं निकलकर मूल ज्वाला से अलग दिखती हैं, फिर भी उनको मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानना पड़ता है, क्योंकि अलग हुई ज्वाला के परमाणु रूपान्तरित होकर वहां अवश्य रहते हैं, किंतु दिखलाई नहीं देते हैं। उसी प्रकार चैत्यवंदन के भिन्न-भिन्न उपयोग होने पर भी उपयोग का परावर्त अति तीव्र गति से होने के कारण हमें एक ही उपयोग जैसा दिखलाई पड़ता है, किंतु शेष उपयोगों के भाव भी वहां मौजूद होते हैं। वंदना मोक्ष की प्राप्ति में निमित्त होती है (जीव भव्य और अभव्य दो प्रकार के होते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-प्रवृत्तिकरण ही होता है)। मात्र द्रव्य चैत्यवंदन करने से मोक्ष नहीं होता है। किंतु शुद्धभाव पूर्वक चैत्यवंदन करने से ही मोक्ष होता है। चैत्यवंदन की इस शुद्धता-अशुद्धता के विषय पर आवश्यकनियुक्ति में सिक्के के प्रकारों को बताते हुए प्रकाश डाला गया है। कहा गया है कि स्वर्णादि द्रव्य शुद्ध और मुद्रा प्रामाणिक हो तो सिक्का असली होता है। स्वर्णादि द्रव्य शुद्ध हों, किंतु मुद्रा ठीक न हो तो रुपया पूर्णतः प्रामाणिक तो नहीं होता है, किंतु उसका कुछ मूल्य अवश्य होता है। मद्रा ठीक हो, किंतु स्वर्णादि द्रव्य अशुद्ध हों तो रुपया जाली या नकली कहा जाता है। मुद्रा और द्रव्य दोनों के ही अप्रामाणिक होने से रुपया खोटा होता है, उसका कोई मूल्य ही नहीं होता। इसी प्रकार श्रद्धायुक्त, स्पष्ट उच्चारण एवं विधिसहित की गई वंदना शुद्ध मुद्रा के समान है। जो वंदना भाव से युक्त हो; परंतु वर्णोच्चारण आदि विधि से अशुद्ध हो, यह वंदना दूसरे प्रकार की वंदना के समान है। तीसरे और चौथे प्रकार की वंदना प्रायः अति दुःखी और मंद बुद्धि वाले जीवों को होती है। तीसरे और चौथे प्रकार की वंदना को लेकर विद्वानों में मत-भिन्नता देखने को मिलती है। कुछ आचार्यों का कहना है कि तीसरे और चौथे प्रकार की वंदना लौकिकी है, तो कुछ आचार्यों का कहना है कि ये दोनों वंदनाएं जिनवंदना हैं ही नहीं, क्योंकि इन वंदनाओं में जो भाव होने चाहिए वे नहीं होते। जहां तक प्रथम-द्वितीय वंदना को प्राप्त करने की बात है तो सभी जीव उसे प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि स्वभाव (जाति) से भव्य होने पर भी जो भव्य (दूर) हैं, वे जीव इस वंदना को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। भव्यत्व मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हो, यह आवश्यक नहीं है। यदि ऐसा होता तो सभी भव्य जीवों को मोक्ष-प्राप्ति हो जाती। अतः आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार किसी को दवा देनी हो तो उसकी अवस्था देखनी पड़ती है और उसी अनुसार