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________________ तृतीय पंचाशक तृतीय पंचाशक में 'चैत्यवंदनविधि' का प्रतिपादन किया गया है। वंदन मुख्यतः तीन प्रकार का माना गया है- जघन्य वंदन, मध्यम वंदन और उत्कृष्ट वंदन। चैत्यवंदन के अधिकारी भी चार प्रकार के जीव ही हो सकते हैं- अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत। इन चार जीवों के अतिरिक्त अन्य जीव चैत्यवंदन के अधिकारी नहीं होते, यहां तक कि वे द्रव्यवंदन भी नहीं कर पाते, क्योंकि द्रव्यवंदन वे ही कर सकते हैं जो भाववंदन की योग्यता रखते हैं। अपुनर्बन्धक से भिन्न सकृद्वन्धकादि जीवों में भाववंदन की योग्यता नहीं होती है, क्योंकि उनका संसार बहुत होता है। लेकिन शास्त्रों में सकृद्वन्धकादि एवं अभव्य जीवों में द्रव्यवंदन की सम्भावना मानी गई है। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक तरफयह कहना कि सकृद्वन्धकादि जीव द्रव्य-वंदना के अधिकारी नहीं हैं और दूसरी तरफ उनके द्वारा द्रव्य-वंदना की सम्भावना को स्वीकार करना क्या सामान्य व्यक्ति को भ्रम में नहीं डाल देता। वस्तुतः, यह भ्रम इसलिए होता है कि प्रधान और अप्रधान दृष्टि से द्रव्यवंदन भी दो प्रकार का होता है। द्रव्यवंदन करने वाले व्यक्ति का चैत्यवंदन में उपयोग नहीं होता है। उसका उपयोगरहित अर्थात् चित्तवृत्ति को उनमें जोड़े बिना किया गया वंदन वस्तुतः वंदन नहीं है। लेकिन भाव-वंदन करने वाला व्यक्ति द्रव्य-वंदन और भाव-वंदन - इन दोनों में ही उपर्युक्त लक्षणों से युक्त होता है, क्योंकि चैत्यवंदन के प्रति उसके मन में सजगता होती है, यद्यपि चैत्यवंदन के लक्षणों में भावप्रधान लक्षण को ही प्रमुखता दी गई है। जिस प्रकार शरीर में अमृत के रस आदि धातु के रूप में परिणमित होने के पहले ही उसके प्रभाव से शरीर में पुष्टि, कान्ति आदि सुंदर भाव दिखते हैं, उसी प्रकार अपुनर्बन्धक आदि जीवों में मोक्ष का हेतु शुभभाव रूप अमृत एक बार उत्पन्न होने पर निश्चित रूप से नए-नए शुभभाव उत्पन्न करता है। सही मायने में देखा जाए तो चैत्यवंदन एक परमसिद्धि है, जिससे मोक्ष जैसे परमपद की प्राप्ति होती है। चैत्यवंदन में 'नामेत्थुणं सूत्र', जिसे प्रणिपात सूत्र भी कहा जाता है, बोलने का विधान है। यह प्रणिपात पंचांगी मुद्रा में बोला जाता है। इसी प्रकार चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स) योगमुद्रा में, ‘अरिहंत चेइयाणं' आदि सूत्र जिमुद्रा में तथा 'जयवीराय' सूत्र मुक्तासूक्ति मुद्रा सहित बोला जाता है। चैत्यवंदन में चैत्यवंदन सम्बंधी क्रियाओं, सूत्रों के पदों, अकारादि वर्गों, सूत्रों के अर्थ और जिनप्रतिमा- इन पांचों के प्रति सजगता (उपयोग) आवश्यक है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि एकाग्रचित्त एक समय में एक ही विषय पर केंद्रित होता है, फिर
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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