________________ वाहनों की स्थापना की जानी चाहिए। इतनी विधि पूर्ण होने के बाद दीक्षार्थी द्रव्य अर्थात् शारीरिक शुद्धि और भाव अर्थात् मानसिक शुद्धि दोनों से पवित्र होकर शुभ मुहूर्त में समवसरण में प्रवेश करता है। तीव्र श्रद्धा वाले उस दीक्षार्थी को सर्वप्रथम जिनशासन की आचार-विधि बतलाई जाती है। दीक्षार्थी के हाथों में सुगंधित पुष्प देकर उसकी आंखों को श्वेत वस्त्र से ढककर जिनबिम्ब पर पुष्प फेंकने को कहा जाता है, ताकि यह पता लग सके कि वह किस गति से आया है और किस गति में जाएगा। समवसरण में जिस भाग पर पुष्प गिरता है, उससे उसकी गति जानी जाती है। दीक्षार्थी की आगति एवं गति के विषय में कुछ आचार्यों का कहना है कि आचार्य के मन आदि योगों की प्रवृत्ति के आधार पर भी शुभाशुभ गति जानी जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि दीप, चंद्र एवं तारों के तेज अधिक हों तो दीक्षार्थी की शुभ गति होती है, अन्यथा अशुभ गति होती है। जिनबिम्ब पर पुष्प फेंकने के साथ ही दीक्षार्थी की योग्यता-अयोग्यता का निर्णय भी हो जाता है। पुष्प यदि समवसरण के बाहर गिरता है तो दीक्षार्थी दीक्षा के अयोग्य होता है और यदि समवसरण में पड़ता है तो वह दीक्षा के योग्य समझा जाता है। यदि पुष्पपात बाहर होता है तो सम्यक्त्व के शंका आदि अतिचारों की आलोचना करवाकर और अर्हदादि चार शरणों को स्वीकार करने की विधि कराकर पूर्ववत् पुष्पक्षेपण कराया जाता हैं। यह क्रिया तीन बार कराई जाती है। तीसरी बार में भी पुष्पपात समवसरण के बाहर होता है तो दीक्षार्थी अयोग्य समझा जाता है। योग्यता के निर्णय के पश्चात् दीक्षार्थी को गुरु जिन-दीक्षा की विधि सुनाते हैं, फिर जिन-दीक्षा के आचारों का वर्णन सुनकर शिष्य गुरु की तीन बार प्रदक्षिणा करता हुआ अन्तःकरण से निवेदन करता है कि मैं आपके प्रति पूर्ण समर्पित हूं। अतः इस संसार-सागर से मेरा उद्धार कीजिए। भक्तिपूर्वक गुरु के प्रति आत्मसमर्पण श्रेष्ठतम दान धर्म है। गुरु को ऐसे ही समर्पित भाव वाले शिष्य प्रिय लगते हैं और वे उन्हें नियमानुसार दीक्षा प्रदान करते हैं। वे धन्य हैं जिन्हें ऐसी दीक्षा प्राप्त होती है। अतः दीक्षित व्यक्ति को अपने द्वारा गृहीत व्रतों एवं नियमों में, सहधर्मियों के प्रति वात्सल्यभाव में, तत्त्वज्ञान के अध्ययन में तथा गुरु के प्रति भक्ति में वृद्धि करते रहना चाहिए तथा दीक्षापूर्वक गृहीत लिंग (वेश) की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। जिनमें उपर्युक्त लक्षण दिखलाई देते हैं, उनकी दीक्षा ही सच्ची दीक्षा मानी जाती है। इस प्रकार क्रमशः सद्गुणों की वृद्धि होने से महासत्त्वशाली जीव का कल्याण होता है और अंत में वह सभी कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।