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________________ हो सकता है, जिसमें साधना के प्रति अनुराग हो तथा जिसने लोक-व्यवहार में निषिद्ध कार्यों का त्याग कर दिया हो। साधना के प्रति अनुराग की यह भावना कभी तो व्यक्ति में स्वतः ही उत्पन्न होती है, तो कभी वैराग्योत्पादक धर्मोपदेश सुनकर या दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी मोक्ष-मार्ग का अनुसरण कर रहे व्यक्तियों को देखकर भी उत्पन्न होती है, लेकिन व्यक्ति जब तक पर-निंदा, श्रेष्ठपुरुषों का तिरस्कार, धार्मिक आचार का उपहास एवं लोकविरुद्ध कार्यों का त्याग नहीं कर देता, तब तक वह दीक्षा का पूर्णतः अधिकारी नहीं हो सकता है। यहां पर कुछ विद्वानों ने अपने विरोधात्मक मत को प्रकट करते हुए विघ्नों के अभाव अथवा सद्भाव में भी अत्यंत चैतसिक दृढ़ता को ही दीक्षा की योग्यता माना है। इसी प्रसंग में आचार्य हरिभद्र ने दीक्षा-सम्बंधी कर्मकाण्ड का भी निरूपण किया है, जो हिन्दू तांत्रिक साधना से पूर्णतः प्रभावित हैं। वे लिखते हैं- दीक्षा लेने से पूर्व दीक्षास्थल की शुद्धि आवश्यक है। अतः मुक्ता-शुक्ति के समान हाथ की मुद्रा बनाकर तथा वायुकुमार आदि देवताओं का मंत्रों द्वारा आह्वान कर, जलसिंचन से उनका सम्मान करते हुए ऐसी कल्पना करनी चाहिए कि वायुकुमार समवसरण की भूमि शुद्ध कर रहे हैं। तत्पश्चात् मेघकुमार द्वारा जल की वर्षा की भावना करनी चाहिए। तदुपरांत बसंत, ग्रीष्म आदि छः ऋतुओं, अग्निकुमार आदि देवताओं का आह्वान करके धूपबत्ती जलानी चाहिए। वैमानिक, ज्योतिष्क एवं भवनवासी देवताओं का आह्वान कर समवसरण के रत्न, सुवर्ण और रौप्य (चांदी) जैसे रंग वाले तीन प्राकार बनाने चाहिए, क्योंकि भगवान् के समवसरण में वैमानिक देवताओं द्वारा अंतर, मध्य और बाह्य- ये तीन प्राकार क्रमशः रत्न, सुवर्ण और चांदी के बनाए जाते हैं। इसके बाद व्यन्तरदेवों का आह्वान करके उन प्राकारों के द्वारादि के तोरण, पीठ, देवछन्द, पुष्करिणी आदि की रचना की जाती है। जिस प्रकार समवसरण में स्वयं भगवान् विराजित होते हैं, उसी प्रकार यहां चतुर्दिशाओं में जिनेन्द्रदेव के बिम्बों की उत्कृष्ट चंदन के ऊपर स्थापना करनी चाहिए। जिनबिम्ब के दक्षिण-पूर्व भाग के गणधरों के पीछे मुनियों की, मुनियों के पीछे वैमानिक देवियों की और देवियों के पीछे साध्वियोंकी स्थापना करनी चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम दिशा में भवनवासियों, व्यन्तरों तथा ज्योतिष्क-देवियों की स्थापना करनी चाहिए (कुछ सिद्धांतवेत्ताओं ने भवनपतियों आदि की स्थापना के लिए केवल पश्चिमोत्तर दिशा निर्दिष्ट की है)। पूर्वोत्तर दिशा में वैमानिक देवों, मनुष्यों और नारीगण की स्थापना करनी चाहिए। द्वितीय प्राकार में सर्प, नेवला, मृग, सिंह, अश्व, भैंसा आदि प्राणियों की स्थापना करके तृतीय प्राकार में देवताओं के हाथी, मगर, सिंह, मोर, कलहंस आदि आकार वाले
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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