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________________ पंचाशक प्रकरण की भूमिका (ई. सन् की लगभग ८वीं शती) पंचाशक (पंचासग) आचार्य हरिभद्रसूरि की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। इसमें उन्नीस पंचाशक हैं, जिसमें दूसरे में 44 और सत्तरहवें में 52 तथा शेष में 50-50 पद्य हैं। वीरगणि के शिष्य श्री चंद्रसूरि के शिष्य यशोदेव ने पहले पंचाशक पर जैन महाराष्ट्री में वि.सं. 1172 में एक चूर्णि लिखी थी, जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अंत में प्रशस्ति के चार पद्य हैं, शेष ग्रंथ गद्य में है, जिसमें सम्यक्त्व के प्रकार, उसके यतना, अभियोग और दृष्टांत के साथ-साथ मनुष्य भव की दुर्लभता आदि अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। समाचारी विषय का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है, आवश्यक चूर्णि के देशविरति में जिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहां पर भी नौ द्वारों का उल्लेख है। पंचाशक का विस्तृत विवरण आगे दिया जा रहा है। पंचाशक प्रथम पंचाशक प्रथम ‘श्रावकधर्मविधि' पंचाशक के अंतर्गत श्रावक के आचार पर प्रकाश डाला गया है। कहा गया है- जो अनन्तानुबन्धी कषायों का नाश कर परलोक हेतु जिनवचनों को सुनता है तथा गुरुओं की सेवा और भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा में निमग्न रहता है, वह उत्तम श्रावक है। आगमानुसार सम्यक्त्व के साथ-साथ श्रावकोचित व्रतों का पालन करना ही श्रावक का कर्तव्य है, किंतु वह श्रावकोचित व्रतों का पालन कभी कर पाता है, तो कभी नहीं कर पाता।व्रतों का अनुपालन चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के होने पर होता है, जबकि सम्यक्त्व की प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के होने पर होती है। दर्शनमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के पश्चात् चारित्रमोह का भी क्षयोपशम आदि हो, यह आवश्यक नहीं है। अतः सम्यक्त्व के साथ श्रावक, व्रतों का पालन कभी कर पाता है और कभी नहीं कर पाता है। यहां प्रश्न 80
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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