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________________ हो सकता है कि दर्शनमोह के क्षयोपशम के तुरंत बाद चारित्रमोह का क्षयोपशम क्यों नहीं होता है? परिणाम अर्थात् मनोभावों के भेद के कारण ऐसा होता है। चारित्रमोह के क्षयोपशम के लिए दर्शनमोह के क्षयोपशम की अपेक्षा विशेष मनोभावों या परिणामों की आवश्यकता होती है। इसलिए जब तक ऐसे विशेष मनोभाव या परिणाम नहीं आएंगे, चारित्रमोह का क्षयोपशम नहीं होगा। अणुव्रत श्रावकों के लिए संसार-सागर को पार करने के लिए नौका के समान हैं। उनको पालन करने का भाव श्रावक में तब आता है, जब सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद मोहनीय आदि सात कर्मों की काल-स्थिति दो सौ नौ पल्योपम जितनी शेष रहती है। साधुओं के महाव्रत की अपेक्षा श्रावक के व्रत सीमित या आंशिक होते हैं, इसलिए उन्हें अणुव्रत कहा जाता है। स्थूलप्राणातिपातविरमण, स्थूलमृषावादविरमण, स्थूलअदत्तादानविरमण, परस्त्री-गमनविरमण (स्वदारसंतोष व्रत) तथा स्थूलपरिग्रहविरमण - ये पांच अणुव्रत हैं। इन अणुव्रतों की रक्षा के लिए गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। गुणव्रत मुख्यतः तीन हैं- दिशा-परिमाण व्रत, भोगोपभोगपरिमाण व्रत तथा अनर्थदण्डविरति। अणुव्रतों की साधना के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। शिक्षाव्रत चार हैं- सामायिक व्रत, देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास व्रत तथा अतिथिसंविभाग व्रत। शिक्षा का अर्थ होता है-अभ्यास। जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः-पुनः विद्या का अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक को भी कुछ व्रतों का पुनः-पुनः अभ्यास करना पड़ता है। इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है। व्रत-ग्रहण कर लेने के पश्चात् श्रावक के आचरण में शिथिलता आने लगती है, जिसके कारण वह दोषमुक्त हो जाता है। फलतः व्रत से च्युत होने का भय बना रहता है। अतः सम्यक्त्वादि व्रतों के वर्णन के साथ-साथ इस प्रथम पंचाशक में उनके अतिचारों का भी विस्तार से वर्णन आया है। कहा गया है - सम्यक्त्वादि व्रतों के पालन हेतु उपाय, रक्षण, ग्रहण, प्रयत्न और विषय आदि पांच बातों पर श्रावक को विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस प्रकार कुम्हार के द्वारा चक्र के किसी एक भाग को चलाने से पूरा चक्र घूमता है, उसी प्रकार यहां सम्यक्त्व और अणुव्रतों का निरूपण करने से उनकी प्राप्ति के उपाय आदि का भी सूचन हो जाता है। उपर्युक्त श्रावक धर्मों में पांच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का पालन प्रायः जीवनपर्यंत होता है, जबकि शिक्षाव्रतों का पालन थोड़े समय के लिए किया जाता है। 81
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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