________________ अतः आदरणीय पं. नाथूराम प्रेमी ने उनके यापनीय होने के सम्बंध में जो सम्भावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है। यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों में समानता है, किंतु इसका कारण उनका इनं दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है- श्वेताम्बर या यापनीय होना नहीं। काल की दृष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते है। पुनः यापनीय परम्परांए रविषेण के महाकवि स्वयम्भू द्वारा उनकी कृति का पूर्णतः अनुसरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना, यही सूचित करता है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे। अतः सिद्ध यही होता है कि विमलसूरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज हैं। श्वेताम्बरों ने सदैव अपने पूर्वज आचार्यों को अपनी परम्परा का माना है। विमलसूरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, यापनीयों ने उनका अनुसरण करते हुए भी उन्हें अपनी परम्परा का नहीं माना, अन्यथा रविषेण और स्वयम्भू कहीं न कहीं नाम निर्देश अवश्य करते। पुनः यापनीयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपना कर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि वे यापनीय नहीं है। अतः विमलसूरि की परम्परा के सम्बंध में दो ही विकल्प हैं। यदि हम उनके ग्रंथ का रचनाकाल वीर निर्वाण संवत् 530 मानते हैं, तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और यापनीयों का पूर्वज मानना होगा, क्योंकि श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के 606 वर्ष बाद और दिगम्बर श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के 609 वर्ष बाद ही मानते हैं। यदि हम इस काल को वीर निर्वाण संवत् मानते हैं, वे श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज सिद्ध होंगे और यदि इसे विक्रम संवत् मानते हैं, तो जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हें श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा। संदर्भ - 1. पउमचरियं भाग-१, इण्ट्रोडक्सन पेज 18, फूटनोट नं.२ वही, देखें, पद्मपुराण (रविषेण), भूमिका, डॉ. पन्नालाल जैन, पृ. 22-23 पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन (वी.एम.कुलकर्णी), पेज 18-22 4. (76)