SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि की जो अवधारणा है, वह भी यही सिद्ध करती है कि वे इन दोनों परम्पराओं के पूर्वज हैं, क्योंकि दोनों ही परम्पराएं स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करती हैं। पुनः यह भी सत्य है कि सभी श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परम्परा का मानते रहे हैं, जबकि यापनीय रविषेण और स्वयंभू ने उनके ग्रंथों का अनुसरण करते हुए भी उनके नाम का स्मरण तक नहीं किया है, इससे यही सिद्ध होता है कि वे उन्हें अपने से भिन्न परम्परा का मानते थे, किंतु यह स्मरण रखना होगा कि वे उसी युग में हुए हैं, जब श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर का स्पष्ट भेद सामने नहीं आया था, यद्यपि कुछ विद्वान उनके ग्रंथ में मनि के लिए 'सियंबर' शब्द के एकाधिक प्रयोग देखकर उनको श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध करना चाहेंगे, किंतु इस सम्बंध में कुछ सावधानियों की अपेक्षा है। विमलसूरि के इन दो-चार प्रयोगों को छोड़कर, हमें प्राचीन स्तर के साहित्य में कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है। स्वयं विमलसूरि द्वारा पउमचरियं में एक भी स्थल पर दिगम्बर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। विद्वानों ने भी विमलसूरि के पउमचरियं में उपलब्ध श्वेताम्बर (सियंबर) शब्द के प्रयोग को सम्प्रदाय सूचक न मानकर उस युग के सवस्त्र मुनि का सूचक माना है, क्योंकि सीता साध्वी के लिए भी सियंबर शब्द का प्रयोग उन्होंने स्वयं किया होगा। मथुरा के ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के अंकन भी इसकी पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार सवस्त्र साध्वी सीता की विमलसूरि ने सियंबरा कहा उसी प्रकार संवस्त्र मुनि को भी सियंबर कहा होगा। उनका यह प्रयोग निग्रंथ मुनियों द्वारा वस्त्र रखने की प्रवृत्ति का सूचक है, न कि श्वेताम्बर दिगम्बर संघभेद का। विमलसूरि निश्चित ही श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों के पूर्वज हैं। श्वेताम्बर उन्हें अपने सम्प्रदाय का केवल इसीलिए मानते हैं कि वे उनकी पूर्व परम्परा से जुड़े हुए हैं। . श्रीमती कुसुम पटोरिया ने महावीर जयंती स्मारिका जयपुर वर्ष 1977 ई. पृष्ठ 257 पर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि विमलसूरि और पउमचरियं यापनीय नहीं है। वे लिखती हैं कि 'निश्चित विमलसूरि एक श्वेताम्बराचार्य हैं। उनका नाइलवंश, स्वयंभू द्वारा उनका स्मरण न किया जाना तथा उनके (ग्रंथ में) श्वेताम्बर साधु का आदरपूर्वक उल्लेख- उनके यापनीय न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है।' विमलसूरि और उनके ग्रंथ पउमचरियं को यापनीय मानने में सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रंथ की भाषा नहीं . बनाया है। यापनीयों ने सदैव ही अर्द्धमागधी से प्रभावित शौरसेनी प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy