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________________ आधारों पर अयथार्थ भी नहीं कहा जा सकता है, तो वे उत्तरभारत के सम्प्रदाय विभाजन के पूर्व के आचार्य सिद्ध होंगे। यदि हम भ. महावीर का निर्वाण ई.पू. 467 मानते हैं, तो इस ग्रंथ का रचनाकाल ई.सन् 64 और वि.सं. 123 आता है। दूसरे शब्दों में पउमचरियं विक्रम की द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है, किंतु विचारणीय यह है कि क्या वीर नि.सं. 530 में नागिलकुल अस्तित्व में आ चुका था ? यदि हम कल्पसूत्र पट्टावली की दृष्टि से विचार करें, तो आर्य वज्र के शिष्य आर्य वज्रसेन और उनके शिष्य आर्य नाग महावीर की पाट परम्परा के क्रमशः 13, 14, १५वें स्थान पर आते हैं४५, यदि आचार्यों का सामान्य काल 30 वर्ष मानें तो आर्यवज्रसेन और आर्यनांग का काल वीर नि. के 420 वर्ष पश्चात् आता है, इस दृष्टि से वीर नि. के 530 में वर्ष में नाइलकुल का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। यद्यपि पट्टावलियों में वज्र स्वामी के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किंतु निह्नवों के सम्बंध में जो कथाएं हैं, उसमें आर्यरक्षित को आर्य भद्र और वज्रस्वामी को समकालीन बताया गया है और इस दृष्टि से वज्रस्वामी का समय वीर नि. 583 मान लिया गया है, किंतु यह धारणा भ्रांतिपूर्ण है। इस सम्बंध में विशेष उपाहोह करके कल्याणविजयजी ने आर्य वज्रसेन की दीक्षा वीर नि.सं. 486 में निश्चित की है। यदि इसे हम सही मान लें तो वीर नि.सं. 530 में नाईल कुल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है। पुनः यदि कोई आचार्य दीर्घजीवी हो तो अपनी शिष्य परम्परा में सामान्यतया वह चार-पांच पीढ़ियां तो देख ही लेता है। वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेंद्र कुल की स्थापना हुई, अपने दादा गुरु आर्य वज्र के जीवनकाल में जीवित हो सकते हैं। इसी आधार पर उन्हें आर्य वज्र का सीधा शिष्य मानकर वज्रसेन को उनका गुरुभ्राता मान लिया गया और आर्यरक्षित के काल के आधार पर उनके काल का निर्धारण कर लिया गया, किंतु नन्दीसूत्र में आचार्यों के क्रम में बीच-बीच में अंतराल रहे हैं। अतः आचार्य विमलसूरि का काल वीर निर्वाण सं.५३० अर्थात् विक्रम की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती है। यदि हम पउमचरियं के रचनाकाल वीर नि.सं. 530 को स्वीकार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस काल तक उत्तरभारत के निग्रंथ संघ में विभिन्न कुल शाखाओं की उपस्थिति और उनमें कुछ मान्यता भेद या वाचनाभेद तो था, फिर भी स्पष्ट संघभेद नहीं हुआ था। दोनों परम्पराएं इस संघभेद को वीर निर्वाण सं. 606 या 609 में मानती हैं। अतः स्पष्ट है कि अपने काल की दृष्टि से भी विमलसूरि संघभेद के पूर्व के आचार्य हैं और इसीलिए उन्हें किसी सम्प्रदाय विशेष से जोड़ना सम्भव नहीं है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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