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________________ सम्बद्ध या उनका पूर्वज माना जा सकता है। (13) इसी प्रकार पउमचरियं में मुनि का आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ कहते हुए दिखाया गया है,३९ जबकि दिगम्बर परम्परा में मुनि आशीर्वचन के रूप में धर्मवृद्धि कहता है, किंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्मलाभ कहने की परम्परा न केवल श्वेताम्बर है, अपितु यापनीय भी है। यापनीय मुनि भी श्वेताम्बर मुनियों के समान धर्मलाभ ही कहते थे। ग्रंथ के श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के इन अन्तःसाक्ष्यों के परीक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ग्रंथ के अन्तःसाक्ष्य मुख्य रूप से उनके श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में अधिक हैं। विशेष रूप से स्त्री-मुक्ति का उल्लेख यह सिद्ध कर देता है कि यह ग्रंथ स्त्री-मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नहीं हो सकता है। (14) विमलसूरि ने पउमचरियं के अंत में अपने को नाइल (नागेंद्र) वंशनन्दीकर आचार्य राहू का प्रशिष्य और आचार्य विजय का शिष्य बताया है। साथ ही पउमचरियं का रचनाकाल वी.नि.सं. 530 कहा है। ये दोनों तथ्य भी विमलसूरि एवं उनके ग्रंथ के सम्प्रदाय निर्धारण हेतु महत्त्वपूर्ण आधार माने जा सकते हैं। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में नागेंद्र कुल का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जबकि श्वेताम्बर मान्य कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्यवज्र के प्रशिष्य एवं व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग से नाईल या नागिल शाखा के निकलने का उल्लेख है।४२ श्वेताम्बर पट्टावलियों के अनुसार भी व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग ने नाइल शाखा प्रारम्भ की थी। विमलसूरि इसी नागिल शाखा में हुए हैं। नन्दीसूत्र में आचार्य भूतदिन को भी नाइलकुलवंशनंदीकर कहा गया है। यही बिरुद्ध विमलसूरि ने अपने गुरुओं आर्य एवं आर्य विजय को भी दिया है। अतः यह सुनिश्चित है कि विमलसूरि उत्तर भारत की निग्रंथ परम्परा से सम्बंधित हैं और उनका यह 'नाइल कुल' श्वेताम्बरों में बारहवीं शताब्दी तक चलता रहा है। चाहे उन्हें आज के अर्थ में श्वेताम्बर न कहा जाए, किंतु वे श्वेताम्बरों के अग्रज अवश्य हैं, इसमें किसी प्रकार के मतभेद की सम्भावना नहीं है। पउमचरियं जैनों के सम्प्रदाय-भेद से पूर्व का है पउमचरियं के सम्प्रदाय का निर्धारण करने हेतु यहां दो समस्याएं विचारणीय हैं - प्रथम तो यह कि यदि पउमचरियं का रचनाकाल वीर नि.सं. 530 है, जिसे अनेक (73)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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