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________________ (8) भ. अजितनाथ और भ. मुनिसुव्रतस्वामी के वैराग्य के कारणों को तथा उनके संघस्थ साधुओं की संख्या को लेकर पउमचरियं और तिलोयपण्णत्ति में मत वैभिन्य है३३, किंतु ऐसा मतभिन्य एक ही परम्परा में भी देखा जाता है, अतः इसे ग्रंथ के श्वेताम्बर होने का सबल साक्ष्य नहीं कहा जा सकता है। (9) पउमचरियं और तिलोयपण्णत्ति में बलदेवों के नाम एवं क्रम को लेकर मतभेद देखा जाता है, जबकि पउमचरियं में दिए गए नाम एवं क्रम श्वेताम्बर परम्परा में यथावत् मिलते हैं।२४ अतः इसे भी ग्रंथ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में एक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यद्यपि यह स्मरण रखना होगा कि पंउमचरियं में भी राम को बलदेव भी कहा गया है। (10) पउमचरियं में 12 देवलोकों का उल्लेख है, जो कि श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुरूप है। जबकि यापनीय रविषेण और दिगम्बर परम्परा के अन्य आचार्य देवलोकों की संख्या 16 मानते हैं, अतः इसे भी ग्रंथ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण माना जा सकता है। (11) पउमचरियं में सम्यक्दर्शन को पारिभाषित करते हुए यह कहा गया है कि जो नव पदार्थों को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।२६ पउमचरियं में कहीं भी 7 तत्त्वों का उल्लेख नहीं हुआ है। पं. फूलचंदजी के अनुसार यह साक्ष्य ग्रंथ के श्वेताम्बर होने के पक्ष में जाता है। किंतु मेरी दृष्टि में नव पदार्थों का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में भी पाया जाता है, अतः इसे ग्रंथ के श्वेताम्बर होने का महत्त्वपूर्ण साक्ष्य तो नहीं कहा जा सकता। दोनों ही परम्परा में प्राचीनकाल में नवपदार्थ ही माने जाते थे, किंतु तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् दोनों में सात तत्त्वों की मान्यता भी प्रविष्ट हो गई, चूंकि श्वेताम्बर प्राचीन स्तर के आगमों का अनुसरण करते थे, अतः उनमें 9 तत्त्वों की मान्यता की प्रधानता बनी रही, जबकि दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ के अनुसरण के कारण सात तत्त्वों की प्रधानता स्थापित हो गई। (12) पउमचरियं में उसके श्वेताम्बर होने के संदर्भ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, वह यह कि उसमें कैकयी को मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है 38, इस प्रकार पउमचरियं स्त्रीमुक्ति का समर्थक माना जा सकता है। यह तथ्य दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है, किंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यापनीय भी स्त्रीमुक्ति तो स्वीकार करते थे, अतः यह दृष्टि से यह ग्रंथ श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं से
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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