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________________ (4) पउमचरियं (2/33) में महावीर का एक अतिशय यह माना गया है कि वे देवों के द्वारा निर्मित कमलों पर पैर रखते हुए यात्रा करते थे, यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसे श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में प्रमाण माना है, किंतु मेरी दृष्टि में यह कोई महत्त्वपूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता। यापनीय आचार्य हरिषेण एवं स्वयम्भू आदि ने भी इस अतिशय का उल्लेख किया है। (5) पउमचरियं (2/82) में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति के बंध के बीस कारण माने है। यह मान्यता आवश्यकनियुक्ति और ज्ञाताधर्मकथा के समान ही है। दिगम्बर एवं यापनीय दोनों ही परम्पराओं में इसके 16 ही कारण माने जाते रहे हैं। अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में एक साक्ष्य कहा जा सकता है। (6) पउमचरियं में मरूदेवी और पद्मावती - इन तीर्थंकर माताओं के द्वारा 14 स्वप्न देखने का उल्लेख है।२८ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा 16 स्वप्न मानती हैं। इसी प्रकार इसे भी ग्रंथ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बंध में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है। पं. नाथूराम जी प्रेमी ने यहां स्वप्नों की संख्या 15 बताई है।२९ भवन और विमान को उन्होंने दो अलग-अलग स्वप्न माना है, किंतु श्वेताम्बर परम्परा में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जो तीर्थंकर नरक से आते हैं, उनकी माताएं भवन और जो तीर्थंकर देवलोक से जाते हैं, उनकी माताएं विमान देखती हैं। यह एक वैकल्पिक व्यवस्था है, अतः संख्या चौदह ही होगी। अतः भवन और विमान वैकल्पिक स्वप्न माने गए हैं, इस प्रकार माता द्वारा देखे जाने वाले स्वप्न की संख्या तो 14 ही रहती है (आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति पृ.१०८)। स्मरण रहे कि यापनीय रविषेण ने पउमचरियं के ध्वज के स्थान पर मीन-युगल को माना है। ज्ञातव्य है कि प्राकृत ‘झय' के संस्कृत रूप ‘ध्वज' तथा झष (मीन-युगल) दोनों सम्भव है। साथ ही सागर के बाद उन्होंने सिहासन का उल्लेख किया है और विमान तथा भवन को अलग-अलग स्वप्न माना है। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्वप्न सम्बंधी पउमचरियं की यह गाथा श्वेताम्बर मान्य नायधम्मकहा' से बिलकुल समान है। अतः यह अवधारणा भी ग्रंथ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बंध में प्रबल साक्ष्य है। . (7) पउमचरियं में भरत और सगर चक्रवर्ती की 64 हजार रानियों का उल्लेख मिलता है३१, जबकि दिगम्बर परम्परा में चक्रवर्तियों की रानियों की संख्या 96 हजार बताई है।३२ अतः यह साक्ष्य भी दिगम्बर और यापनीय परम्परा के विरुद्ध है और मात्र श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में जाता है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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