________________ परम्परा का निर्धारण कैसे किया जा सकता है? साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थरीकरण के पूर्व निर्गंथ परम्परा में विभिन्न धारणाओं की उपस्थिति एक सामान्य बात थी। अतः इस ग्रंथ के सम्प्रदाय का निर्धारण करने में व्रतों के नाम एवं क्रम सम्बंधी मतभेद सहायक नहीं हो सकते। (7) पउमचरियं में अनुदिक् का उल्लेख हुआ है। श्वेताम्बर आगमों में अनुदिक् का उल्लेख नहीं है, जबकि दिगम्बर ग्रंथ (यापनीय ग्रंथ) षट्खण्डागम एवं तिलोयपण्णत्ति में इसका उल्लेख पाया जाता है।८ किंतु मेरी दृष्टि में प्रथम तो यह भी पउमचरियं के सम्प्रदाय निर्णय के लिए महत्त्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अनुदिक् की अवधारणा से श्वेताम्बरों का भी कोई विरोध नहीं है। दूसरे जब अनुदिक् शब्द स्वयं आचारांग में उपलब्ध है१९, तो फिर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह कैसे कह देते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में अनुदिक् की अवधारणा नहीं है? (8) पउमचरियं में दीक्षा के अवसर पर भ. ऋषभ द्वारा वस्त्रों के त्याग का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार भरत द्वारा भी दीक्षा ग्रहण करते समय वस्त्रों के त्याग का उल्लेख है२१, किंतु यह दोनों संदर्भ भी पउमचरियं के दिगम्बर या यापनीय होने के प्रमाण नहीं कहे जा सकते, क्योंकि श्वेताम्बर मान्य ग्रंथों में भी दीक्षा के अवसर पर वस्त्राभूषण त्याग का उल्लेख तो मिलता ही है।२२ यह भिन्न बात है कि श्वेताम्बर ग्रंथों में उस वस्त्र त्याग के बाद कहीं देवदुष्य का ग्रहण भी दिखाया जाता है।२३ भ. ऋषभ, भरत, भ. महावीर आदि की अचेलता तो स्वयं श्वेताम्बरों को भी मान्य है। अतः पं. परमानंद शास्त्री का यह तर्क ग्रंथ के दिगम्बरत्वं का प्रमाण नहीं माना जा सकता है।२४ .. (9) पं. परमानंद शास्त्री के अनुसार पउमचरियं में नरकों की संख्या का जो उल्लेख मिलता है वह आचार्य पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिमान्य तत्त्वार्थ के पाठ के निकट है, जबकि श्वेताम्बर भाष्य-मान्य तत्त्वार्थ के मूलपाठ में यह उल्लेख नहीं है, किंतु तत्त्वार्थभाष्य एवं अन्य श्वेताम्बर आगमों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होने से इसे भी निर्णायक तथ्य नहीं माना जा सकता है। इसी प्रकार नदियों के विवरण का तथा भरत और एरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के विभाग आदि तथ्यों को भी ग्रंथ के दिगम्बरत्व के प्रमाण हेतु प्रस्तुत किया जाता है, किंतु ये सभी तथ्य श्वेताम्बर ग्रंथों में भी उल्लेखित है।२५ अतः ये तथ्य ग्रंथ के दिगम्बरत्व या श्वेताम्बरत्व के निर्णायक नहीं कहे जा सकते। मूल परम्परा के एक होने से अनेक बातों में एकरूपता का होना तो