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________________ का प्रयत्न होगा, जो कि तार्किक दृष्टि से समुचित नहीं है। . (4) पउमचरियं में पांच स्थावरकायों के उल्लेख के आधार पर भी उसे दिगम्बर परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया गया है, किंतु हमें यह ध्यान रखना होगा कि स्थावरों की संख्या तीन मानी गई हैं अथवा पांच, इस आधार पर ग्रंथ के श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परा का होने का निर्णय करना सम्भव नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में जहां कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय (111) में तीन स्थावरों की चर्चा की हैं, वहीं अन्य आचार्यों ने पांच की चर्चा की है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन ग्रंथों में भी, तीन स्थावरों की तथा पांच स्थावरों की- दोनों मान्यताएं उपलब्ध होती हैं। अतः ये तथ्य विमलसरि और उनके ग्रंथ की परम्परा के निर्णय का आधार नहीं बन सकते। इस तथ्य की विशेष चर्चा हमने तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के प्रसंग में की है, साथ ही एक स्वतंत्र लेख भी श्रमण अप्रैल-जून 63 में प्रकाशित किया है, पाठक इसे वहां देखें। . (5) कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पउमचरियं में 14 कुलकरों की अवधारणा पाई जाती हैं।१२ दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में भी 14 कुलकरों की अवधारणा का समर्थन देखा जाता है१३, अतः यह ग्रंथ दिगम्बर परम्परा का होना चाहिए, किंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अंतिम कुलकर के रूप में ऋषभ का उल्लेख है। ऋषभ के पूर्व नाभिराय तक १४.कुलकारों की अवधारणा तो दोनों परम्पराओं में समान है। अतः यह अंतर ग्रंथ के सम्प्रदाय के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है। पुनः जो कुलकरों के नाम पउमचरियं में दिए गए हैं, उनका जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और तिलोयपण्णत्ति दोनों से ही कुछ अंतर है। (6) पउमचरियं के १४वें अधिकार की गाथा 115 में समाधिमरण को चार शिक्षाव्रतों के अंतर्गत परिगणित किया गया है,१४, किंतु श्वेताम्बर आगम उपासकदशा में समाधिमरण का उल्लेख शिक्षाव्रतों के रूप में नहीं हुआ है। जबकि दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द आदि कुछ आचार्य समाधिमरण को १२वें शिक्षाव्रत के रूप में अंगीकृत करते हैं।५अतः पउमचरियं दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होना चाहिए। इस संदर्भ में मेरी मान्यता यह है कि गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है१६. दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का अनुसरण करने वाले दिगम्बर आचार्य भी समाधिमरण को शिक्षाव्रतों में परिग्रहित नहीं करते हैं, जबकि कुन्दकुन्द ने उसे शिक्षाव्रतों में परिग्रहित किया है। जब दिगम्बर परम्परा ही इस प्रश्न पर एकमत नहीं है, तो फिर इस आधार पर पउमॅचरियं की
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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