SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्य में नियुक्ति साहित्य से अधिक है। इसकी भाषा और छंद योजना से यह सिद्ध होता है कि इसका रचनाकाल दूसरी-तीसरी शती से परवर्ती नहीं है। पउमचरियं का रचनाकाल पउमचरियं में विमलसूरि ने इसके रचनाकाल का भी स्पष्ट निर्देश किया है पंचेव य वास सया दुसमाए तीस वरिस संजुत्ता / वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं // अर्थात् दुसमा नामक आरे के पांच सौ तीस वर्ष और वीर का निर्वाण होने पर यह चरित्र लिखा गया। यदि हम लेखक के इस कथन को प्रामाणिक मानें तो इस ग्रंथ की रचना विक्रम संवत् 60 के लगभग माननी होगी। महावीर का निर्वाण दुसम नामक आरे के प्रारम्भ होने लगभग 3 वर्ष और 9 माह पूर्व हो चुका था, अतः इसमें चार वर्ष जोड़ना होंगे। मतान्तर से भ. महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् के 410 वर्ष पूर्व भी माना जाता है, इस सम्बंध में मैने अपने लेख "Date of Mahavira's Nirvana" में विस्तार से चर्चा की है। अतः उस दृष्टि से पउमचरियं की रचना विक्रम संवत् 124 अर्थात् विक्रम संवत् की दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई होगी। मेरी दृष्टि में पउमचरियं का यही रचना काल युक्ति-संगत सिद्ध होता है। क्योंकि ऐसा मानने पर लेखक के स्वयं के कथन से संगति होने के साथ-साथ उसे परवर्ती काल का मानने के सम्बंध में जो तर्क दिए गए हैं, वे भी निरस्त हो जाते हैं। हरमन जेकोबी, स्वयं इसकी पूर्व तिथि २री या ३री शती मानते हैं, उनके मत से यह मत अधिक दूर भी नहीं है। दूसरे विक्रम की द्वितीय शताब्दी पूर्व ही शकों का आगमन हो चुका था, अतः इसमें प्रयुक्त लग्नों के ग्रीक नाम तथा 'दीनार', यवन, शक आदि शब्दों की उपलब्धि में भी कोई बाधा नहीं रहती है। यवन शब्द ग्रीकों अर्थात् सिकन्दर आदि का सूचक है, जो ईसा पूर्व भारत में आ चुके थे। शकों का आगमन भी विक्रम संवत् के पूर्व हो चुका था, कालकाचार्य द्वारा शकों के भारत लाने का उल्लेख विक्रम पूर्व का है। दीनार शब्द भी शकों के आगमन के साथ ही आ गया होगा। साथ ही नाईल कुल या शाखा भी इस काल में अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे मैंने पउमचरियं की परम्परा में सिद्ध किया है। अतः पउमचरियं को विक्रम की द्वितीय शती के पूर्वार्ध में रचित मानने में कोई बाधा नहीं रहती है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy