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________________ यवन देश तक की यात्राएं करते थे। पर्वतों और नदियों के जो उल्लेख वसुदेवहिण्डी में मिलते हैं, उनसे एक बृहत्तर भारत का चित्र उभरकर सामने आता है। राजनैतिक चर्चाओं से यह ज्ञात होता है कि उस युग में राजतंत्र का बोलबाला था, फिर भी समाज में निकाय और पंचायत व्यवस्थाएं प्रचलित थीं। इस प्रकार उच्च स्तर पर राजतंत्र और निम्न स्तर पर प्रजातंत्र दोनों का समन्वय देखा जाता है। जहां तक आर्थिक स्थिति का प्रश्न है, उस समय भारत सम्पन्न और समृद्ध देश था। कृषि, उद्योग और विदेशी व्यवसाय सभी अपनी उन्नति के शिखर पर थे। वसुदेवहिण्डी में इस आर्थिक सुव्यवस्था और सम्पन्नता का चित्रण हमें विस्तार से उपलब्ध हो जाता है। वसुदेवहिण्डी में राज्यों के बीच आंतरिक विरोध और युद्धों की चर्चा मिलती है। अपनी सुरक्षा के लिए युद्ध करना अहिंसावादी जैन परम्परा को भी मान्य था, फिर भी आचार्य संघदासगणि का स्पष्ट निर्देश था कि युद्ध क्षेत्र में उतरने के पूर्व राजा को अपनी शक्ति का अनुमान कर लेना चाहिए। मध्यम खण्ड में धर्मसेनगणि भी कहते हैं कि युद्ध के परिणामों का विचार करके ही युद्ध में प्रवृत्त होना चाहिए। युद्ध के प्रमुख कारणों की चर्चा करते हुए वसुदेवहिण्डी में स्त्री और भूमि को युद्ध का प्रमुख कारण माना गया है। दण्ड व्यवस्था के संदर्भ में संघदासगणि एक सापेक्षिक न्याय व्यवस्था का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार उत्तम पुरुष संकेत मात्र से अपराधं कर्म से विमुख हो जाते हैं, जबकि मध्यम पुरुष मना करने पर रुक जाते हैं, लेकिन निकृष्ट पुरुष तो बिना कठोर दण्ड के अपना अपराध कर्म नहीं छोड़ते हैं। . वसुदेवहिण्डी में उस युग में प्रचलित खान-पान, वस्त्र, आभूषण, केश-विन्यास आदि का भी विवरण उपलब्ध होता है, जिसका विद्वान् लेखिका ने विस्तार से वर्णन किया है। इसी प्रकार उस युग में मनोरंजन के विभिन्न साधनों और कलाओं, वाद्य यंत्रों आदि के संकेत भी वसुदेवहिण्डी में उपलब्ध होते हैं। आयुर्वेद सम्बंधी भी अनेक सूचनाएं इस ग्रंथ में उपलब्ध होती हैं। उसमें सबसे मनोरंजक सूचना यह है कि शल्यक्रिया के द्वारा यौन परिवर्तन किए जाते थे। वसुदेवहिण्डी प्रथम और मध्यम दोनों ही खण्डों में इसका उल्लेख हुआ है। मंत्रों और गुटिकाओं के भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जिसके माध्यम से रूप और वाणी में परिवर्तन हो जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वसुदेवहिण्डी न केवल कथाओं की अपेक्षा से, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक सूचनाओं की दृष्टि से भी एक आकर ग्रंथ है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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