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________________ हैं। इसका दूसरा खण्ड जो मध्यमखण्ड के नाम से जाना जाता है, वह धर्मसेनगणि के द्वारा रचित है। आवश्यकचूर्णि में वसुदेवहिण्डी का उल्लेख मिलता है। आवश्यकचूर्णि का रचनाकाल ई.सन् 600 के लगभग माना जाता है, अतः स्पष्ट है कि इसके पूर्व इस ग्रंथ की रचना हो चुकी थी। कुछ विद्वानों ने वसुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड के रचनाकार संघदासगणि का समय ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित किया है। ग्रंथ की भाषा और विषय-वस्तु की दृष्टि से भी यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत कृति चौथी-पांचवीं शताब्दी की है। इस प्रकार विमलसूरि के ‘पउमचरियं' के पश्चात् लिखित कथाओं में वसुदेवहिण्डी का स्थान सर्वोपरि है। प्रस्तुत कथा में प्रसंगवश रामायण और महाभारत दोनों के कथासूत्र निबद्ध कर लिए गए हैं। मात्र यही नहीं प्राचीन भारतीय कथाओं के अनेक प्राचीन कथासूत्र इस ग्रंथ में उपलब्ध हो जाते हैं। इसके साथ ही प्राचीन भारतीय समाज और संस्कृति के तथ्यों का भी इस ग्रंथ में सुंदर और सजीव चित्रण पाया जाता है। यद्यपि डॉ. जगदीशचंद्र जैन ने इस ग्रंथ की भूमिका में ग्रंथ और उसकी विषयवस्तु . का विस्तृत परिचय दिया है, किंतु अनेक कारणों से प्रस्तुत ग्रंथ का सांस्कृतिक अध्ययन नहीं पाया हो पाया था। उसका प्रथम कारण तो यह था कि प्रस्तुत ग्रंथ आर्ष प्राकृत में निबद्ध था। यद्यपि सन् 1942 में भाई भोगीलाल जयचंद्र ने इसका गुजराती अनुवाद किया था, किंतु अनुवाद उपलब्ध न होने से कोई भी विद्वान् सांस्कृतिक और सामाजिक अध्ययन की दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रहा था। . ___ मैंने डॉ. (श्रीमती) कमल जैन को इसके लिए प्रेरित किया, क्योंकि इसके पूर्व वे 'जैन आगमों में आर्थिक जीवन' और 'हरिभद्र के साहित्य में समाज और संस्कृति' ऐसे दो ग्रंथ पूर्ण कर चुकी थीं। यद्यपि अपने इन पूर्व अध्ययनों के निमित्त उन्होंने प्राकृत भाषा का अध्ययन भी किया था, किंतु वे साहस नहीं कर पा रही थीं। संयोग से उन दिनों डॉ. श्री रंजनसूरिदेव का वसुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड का अनुवाद हमें उपलब्ध हुआ और उन्होंने इस दिशा में कार्य करने का निश्चय किया। वस्तुतः, किसी ग्रंथ का सांस्कृतिक और सामाजिक अध्ययन करना इसलिए एक कठिन कार्य होता है, क्योंकि उसमें सर्वप्रथम तो सम्पूर्ण ग्रंथ का आलोड़न करके विभिन्न विषयों को निकालना होता है और फिर उन्हें सुसम्बद्ध रूप से प्रस्तुत करना होता है। प्रस्तुत कृति में लेखिका ने प्राकृत कथा साहित्य में वसुदेवहिण्डी के स्थान को निर्धारित करते हुए उसके लेखक संघदासगणि और धर्मसेनगणि का परिचय दिया है। यद्यपि लेखकों के संदर्भ में विशेष सूचनाएं अनुपलब्ध न होने से इनके जन्म स्थान, माता, पिता,
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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