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________________ घटनाओं का एक ऐसा जीवन्त दृश्य उपस्थित करती हैं जिसका जनसामान्य भी आस्वादन कर लेता है। यही कारण है कि निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा में भी प्राचीनकाल से कथा साहित्य का सृजन होता रहा है। जैन परम्परा ने अपने आगम साहित्य को जिन चार भागों में वर्गीकृत किया उसमें धर्मकथानुयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके मूल्य और महत्त्व को देखते हुए ही इसे प्रथमानुयोग के नाम से अभिहित किया जाता है। आगम साहित्य में संकलित कथाओं के अतिरिक्त जैन आचार्यों ने स्वतंत्र रूप से भी कथा साहित्य की सर्जना की है। इन कथाओं में विमलसूरिकृत ‘पउमचरियं' तथा संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी प्राचीनतम् हैं, जहां विमलसूरि का पउमचरियं जैन रामकथा को प्रस्तुत करता है, वहां वसुदेवहिण्डी में कृष्ण के पिता वसुदेव के यात्रा वृतान्त का चित्रण किया गया है। यह स्पष्ट है कि वसुदेवहिण्डी मुख्यतः एक श्रृंगारस प्रधान कथा ग्रंथ है। अतः स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठना चाहिए कि निवृत्ति प्रधान जैन आचार्यों ने श्रृंगारप्रधान कथाएं क्यों लिखी ? वस्तुतः, जैन आचार्यों का मुख्य उद्देश्य तो जनसाधारण में त्याग और वैराग्य की भावनाओं को जगाना ही था, किंतु इस प्रकार के नीरस प्रवचनों में जनसाधारण की अभिरुचि नहीं बन पाती थी। अतः उन्होंने जनसाधारण को धर्म मार्ग में आकर्षित करने के लिए अपनी धर्मकथाओं में श्रृंगाररस से परिपूर्ण प्रेमाख्यानों को समाहित करके साहित्य सर्जना प्रारम्भ की, जिस प्रकार कोई वैद्य अपनी कड़वी दवाई को गुड़ में रखकर रोगी को इस प्रकार देता है कि वह प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार धर्माचार्यों को भी काम कथा में रत जनसामान्य के मनोरंजन के लिए श्रृंगार कथा के माध्यम से धर्म कथा सुनानी चाहिए। वसुदेवहिण्डी के सहयोगी लेखक धर्मसेनगणि ने भी स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों का मुख्य उद्देश्य तो जनसामान्य के त्याग और वैराग्य की भावनाओं को उत्प्रेरित करना ही रहा, किंतु उन्हें श्रृंगार प्रधान कथाओं के माध्यम से वैराग्य का उपदेश देना अधिक उपयोगी लगा। वसुदेवहिण्डी की रचना भी इसी दृष्टिकोण को रखकर की गई थी। .. वसुदेवहिण्डी एक बृहत्काय ग्रंथ है और अभी तक सम्पूर्ण ग्रंथ न तो उपलब्ध हो सका है और न ही प्रकाशित हुआ है। इसके प्रथम खण्ड में 29 लम्बक हैं जो 11,000 श्लोकों में निबद्ध हैं। मध्यम खण्ड में 71 लम्बक हैं, जो 17,000 श्लोकों में पूर्ण हुए हैं। डॉ. जगदीशचंद्र जैन की मान्यता है कि यह पैशाची प्राकृत में लिखित गुणाढ्य की बृहत्कथा पर आधारित है। वसुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड के लेखक संघदासगणि
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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