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________________ इस प्रकार यद्यपि मूलग्रंथ और उसकी संस्कृत टीका उपलब्ध थी, किंतु प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ व्यक्तियों के लिए इसके हार्द को समझ पाना कठिन था। इसका प्रथम गुजराती अनुवाद जो मलधारगच्छीय हेमचंद्रसूरि की टीका पर आधारित है, मुनि श्री अमितयश विजय जी महाराज ने किया, जो जिनशासन आराधना ट्रस्ट, बम्बई के द्वारा ई. सन् 1985 में प्रकाशित हुआ। फिर भी हिन्दी भाषा-भाषी जनता के लिए इस महान् ग्रंथ का उपयोग कर पाना अनुवाद के अभाव में कठिन ही था। ई.सन् 1995 में खरतरगच्छीया महत्तरा अध्यात्मयोगिनी पुज्याश्री विचक्षणश्री जी म.सा. की सुशिष्या एवं साध्वीवर्या मरुधरज्योति पूज्या मणिप्रभाश्री जी की नेश्रायवर्तिनी साध्वी श्री विद्युतप्रभाश्रीजी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ में अपनी गुरु भगिनियों के साथ अध्ययनार्थ पधारी, उनसे मैंने इस ग्रंथ के अनुवाद के लिए निवेदन किया, जिसे उन्होंने न केवल स्वीकार किया, अपितु कठिन परिश्रम करके अल्पावधि में ही इसका अनुवाद सम्पन्न किया। उसके सम्पादन और संशोधन में मेरी व्यस्तता एवं स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों से अपेक्षा से कुछ अधिक ही समय लगा, किंतु आज यह ग्रंथ मुद्रित होकर लोकार्पित होने जा रहा है, यह अतिप्रसन्नता और संतोष का विषय है। सम्पादन एवं भूमिका लेखन में हुए विलम्ब के लिए मैं साध्वीश्री जी एवं पाठकों से क्षमाप्रार्थी हूं। वसुदेवहिण्डी की भूमिका (ई.सन् की ५वीं ६टीं शती) आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन मूल्यों को आत्मसात करने हेतु प्रेरणा देने के लिए कथाओं और रूपकों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वस्तुतः, कथा परम्परा का प्रचलन मानव एवं संस्कृति के उद्भव और विकास के प्रारम्भिक युग से ही रहा है। कथाएं एक ऐसा माध्यम हैं, जो रोचक ढंग से व्यक्ति के भाव जगत् में परिवर्तन लाती हैं। यही कारण है कि निवृत्ति प्रधान श्रमण संस्था में भी कथाओं और रूपकों का महत्त्व प्राचीनकाल से ही रहा है। ज्ञाताधर्मकथा में भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट रूपक कथाओं का एक महत्त्वपूर्ण संकलन उपलब्ध होता है। कथाओं की अपनी यह विशेषता होती है कि वे
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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