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________________ अल्पबहुत्व की चर्चा हुई है, उसमें बताया गया है कि सबसे अल्प मनुष्य है, मनुष्यों से असंख्यात गुणा अधिक देवता हैं, देवों से असंख्यात गुणा अधिक सिद्ध या मुक्त आत्मा है और सिद्धों से अनंत गुणा अधिक तिर्यंच हैं। स्त्री-पुरुष से अल्पबहुत्व को बताते हुए कहा गया है कि मानव स्त्री सबसे कम है, उनकी अपेक्षा पुरुष अधिक है, पुरुषों से अधिक नारकीय जीव हैं, उनसे असंख्यात गुणा अधिक पंचेन्द्रिय तिरियंचिणि हैं, उनसे असंख्यात गुणा अधिक देवियां हैं। इसी क्रम में आगे विभिन्न नरकों की पारस्परिक अपेक्षा से और देव गति में विभिन्न देवों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार हुआ है। इसी क्रम में आगे विभिन्न कार्यों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। अंत में विभिन्न गुणस्थानों की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। इस प्रकार इस द्वार में विभिन्न मार्गणाओं की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार हुआ है। अंत में अजीव द्रव्यों और उनके प्रदेशों के अल्पबहुत्व का विचार करते हुए प्रस्तुत कृति समाप्त होती है, अंतिम दो गाथाओं में जीवसमास का आधार दृष्टिवाद को बतलाते हुए जीवसमास के अध्ययन के फल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो इसका अध्ययन करता है उसकी मति विपुल होती है तथा वह दृष्टिवाद के वास्तविक अर्थ का ज्ञाता हो जाता है। - इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवसमास का वर्ण्य-विषय विविध आयामों वाला है। उसमें जैन, खगोल, भूगोल, सृष्टि-विज्ञान के साथ-साथ उस युग में प्रचलित विविध प्रकार के तौल-माप, जीवों की विभिन्न प्रजातियां आदि का विवेचन उपलब्ध होता है। गुणस्थान सिद्धांत को आधार बनाकर आठ अनुयोगद्वारों के माध्यम से उसकी व्याख्या करने वाला श्वेताम्बर परम्परा में यह प्रथम ग्रंथ है। इसकी प्राचीनता और महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। इस पर सर्वप्रथम मलधार-गच्छीय श्री हेमचंद्रसूरि की वृत्ति है। यह मूलग्रंथ सर्वप्रथम ऋषभदेव केशरीमल संस्थान, रतलाम के द्वारा ई.सन् 1928 में प्रकाशित हुआ था। इसके भी पूर्व हेमचंद्रसूरि की वृत्ति के साथ यह ग्रंथ आगमोदय समिति बम्बई द्वारा ई.सन् 1927 में मुद्रित किया गया था। जिनरत्नकोष से हमें यह भी सूचना मिलती है कि इस पर मलधारगच्छीय हेमचंद्रसूरि की वृत्ति के अतिरिक्त शीलांकाचार्य की एक टीका भी उपलब्ध होती है, जो अभी तक अप्रकाशित है। यद्यपि इसकी प्रतियां बड़ौदा आदि विभिन्न ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार इसकी एक अन्य टीका बृहद्वृत्ति के नाम से जानी जाती है, जो मलधारगच्छीय हेमचंद्रसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि के द्वारा विक्रम संवत् 1164 तदनुसार ई.सन् 1107 में लिखी गई थी।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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