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________________ ग्रंथ की भाषा एवं शैली जहां-तक जीवसमास की भाषा का प्रश्न है, वह स्पष्टतया महाराष्ट्री प्राकृत है। इससे इसके सम्बंध में दो बातें निश्चित होती हैं- एक तो यह कि इसकी रचना सौराष्ट्र और राजस्थान में ही कहीं हुई होगी, क्योंकि यदि इसकी रचना मगध या शौरसैन में हुई होती तो इसकी भाषा में आर्ष अर्द्धमागधी अथवा शौरसेनी प्राकत होती। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इसकी रचना संघभेद के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में हुई है, क्योंकि इस युग के दिगम्बर ग्रंथ प्रायः शौरसेनी या महाराष्ट्री प्रभावित शौरसेनी में पाए जाते हैं। यद्यपि प्रस्तुत कृति महाराष्ट्री प्राकृत की रचना है, फिर भी इसमें कहीं-कहीं आर्ष अर्द्धमागधी के प्रयोग देखे जाते हैं। जहां तक जीवसमास की शैली का प्रश्न है, निश्चय ही यह षट्खण्डागम के समरूप प्रतीत होती है, क्योंकि दोनों ही ग्रंथ चौदह मार्गणाओं एवं छह और आठ अनुयोगद्वारों के आधारों पर चौदह गुणस्थानों की चर्चा करते हैं। यद्यपि षट्खण्डागम की जीवसमास से अनेक अर्थों में भिन्नता है, जहां षट्खण्डागम सामान्यतया शौरसेनी में लिखा गया है, वहां जीवसमास सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है। पुनः जहां षट्खण्डागम गद्य में है, वहां जीवसमास पद्य में है। जहां जीवसमास संक्षिप्त है, वहां षट्खण्डागम व्याख्यात्मक है, फिर भी विषय प्रस्तुतिकरण की शैली एवं विषयवस्तु को लेकर दोनों में पर्याप्त समरूपता भी है। षट्खण्डागम के प्रारम्भिक खण्ड जीवस्थान के समान इसका भी प्रारम्भ सत्-प्ररूपणा से होता है। इसमें भी गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, भव, सम्यक्, संज्ञा और आहार- इन चौदह मार्गणाओं के संदर्भ में चौदह गुणस्थानों की चर्चा है। षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान के समान इसमें भी वही नाम वाले आठ अनुयोगद्वार हैं- 1. सत्- प्ररूपणाद्वार, 2. परिमाणद्वार, 3. क्षेत्रद्वार, 4. स्पर्शनाद्वार, 5. कालद्वार, 6. अनतार, 7. भावद्वार, 8. अल्पबहुत्वद्वार। . . इस प्रकार विषय प्रतिपादन में दोनों में अद्भूत शैलीगत समरूपता है, फिर भी षट्खण्डागम की अपेक्षा जीवसमास संक्षिप्त है। ऐसा लगता है कि षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड जीवसमास की ही व्याख्या हो। जीवसमास के आधारभूत ग्रंथ - जीवसमास ग्रंथ वस्तुतः दृष्टिवाद से उद्धृत किया गया है, क्योंकि उसकी अंतिम
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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