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________________ गाथा में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि जिनोपदिष्ट बहुभंग वाले दृष्टिवाद के दृष्टि-स्थान से जीवसमास नामक यह ग्रंथ उद्धृत किया गया है। यद्यपि जीवसमास की विषयवस्तु से सम्बंधित अनेक विषयों की चर्चा भगवती, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम, अनुयोगद्वार आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों में मिलती है, किंतु यह कहना कठिन है कि इस ग्रंथ की रचना इन ग्रंथों के आधार पर हुई है, क्योंकि अनेक प्रश्नों पर प्रस्तुत ग्रंथ का मत भगवती, प्रज्ञापना आदि से भिन्न प्रतीत होता है। इसमें वर्णित अनेक विषय, जैसे मार्गणाओं और गुणस्थानों के सह-सम्बंध आदि ऐसे हैं, जिनका श्वेताम्बर मान्य इन आगमों में कोई उल्लेख ही नहीं है, किंतु आगमों की वलभी वाचना से परवर्ती चंद्रर्षि महत्तर के प्राचीन कर्मग्रंथों (छठी शती) में ये विषय चर्चित हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि ग्रंथकार ने जो दृष्टिवाद से इसको अवतरित करने की बात कही, वह आंशिक सत्य अवश्य है, क्योंकि कर्मों के बंध, उदय, क्षयोपशम आदि का विषय कम्मपयडी आदि पूर्व साहित्य के अंगीभूत ग्रंथों में ही अधिक सूक्ष्मता से विवेचित था। जैन परम्परा में अंगधरों के समान ही पूर्वधरों की एक स्वतंत्र परम्परा रही है और कर्म-साहित्य विशेष रूप से पूर्व-साहित्य का अंग रहा है। पुनः आगमिक मान्यताओं की अपेक्षा इसके मन्तव्यों का कर्मग्रंथकारों के अधिक निकट होना भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। आगमों, कर्मग्रंथों और जीवसमास के मन्तव्यों में कहां समरूपता है और कहां मतभेद है, यह सब विस्तार से अन्वेषणीय है। षट्खण्डागम और जीवसमास जैसा कि हमने पूर्व में अनेक स्थलों पर संकेत किया कि जीवसमास की सम्पूर्ण विषयवस्तु अपने वर्णित विषय और शैली की दृष्टि से षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान से पूर्णतः समरूपता रखती है। मात्र अंतर. यह है कि जहां जीवसमास में यह वर्णन मात्र 286 गाथाओं में किया गया है, वही वर्णन षट्खण्डागम के जीवस्थान में 1860 सूत्रों के द्वारा किया गया। दूसरा महत्त्वपूर्ण अंतर षट्खण्डागम और जीवसमास में यह है कि प्रत्येक अनुयोगद्वार की प्रत्येक प्ररूपणा के आधारभूत तथ्यों की जो विस्तृत चर्चा लगभग 111 गाथाओं में जीवसमास में की गई है, वह षट्खण्डागम के जीवस्थान में तो नहीं है, किंतु उसकी धवला टीका में अवश्य उपलब्ध होती है। इस आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि क्या जीवसमासकार ने षट्खण्डागम के आधार पर ही तो इसकी रचना नहीं की है? किंतु ऐसा नहीं है। इस सम्बंध में हम अपनी ओर से कुछ न कहकर षट्खण्डागम के विशिष्ट विद्वान् उसके सम्पादक 34
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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