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________________ . इन समस्त चर्चा से ऐसा लगता है कि लगभग पांचवीं शताब्दी के अंत में जब सर्वप्रथम गुणस्थान की अवधारणा सुव्यवस्थित हुई, तब उसे जीवस्थान या जीवसमास के नाम से अभिहित किया जाता था- गुणस्थान शब्द का प्रयोग अभी प्रचलित नहीं हुआ था। लगभग छठी शती से इसके लिए गुणस्थान शब्द रूढ़ हुआ और छठी शती के उत्तरार्द्ध में जीवस्थानों, मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सह-सम्बंध निश्चित हुए। गुणस्थान के इस ऐतिहासिक विकासक्रम को समझने के लिए नीचे हम दो सारणियां प्रस्तुत कर रहे हैं - गुणस्थान सिद्धांत का उद्भव एवं विकास सारिणी क्रमांक -1 तत्त्वार्थ एवं | कसायपाहुडसुत्त / समवायांग/ | श्वेताम्बरतत्त्वार्थभाष्य षट्खण्डागम/ | दिगम्बर तत्त्वार्थ की जीवसमास टीकाएं एवं आराधना, मूलाचार, समयसार, नियमसार आदि ३री-४थी शती | ४थी शती | ५वीं-६ठी शती | ६ठी शती या उसके पश्चात् गुणस्थान, जीव- गुणस्थान, | समवायांग में गुणस्थान शब्द की समास, जीवस्थान, | गुणस्थान शब्द का| स्पष्ट जीवस्थान जीवसमास आदि | अभाव | उपस्थिति मार्गणा आदिः | शब्दों का अभाव, | किंतु जीवठाण का शब्दों का पूर्ण | किंतु मार्गणा शब्द | उल्लेख है, जबकि अभाव | पाया जाता है। | जीवसमास एवं | षट्खण्डागम में प्रारम्भ में Thuilli @ (27
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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