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________________ तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। लगभग पांचवीं शताब्दी में यह सिद्धांत अस्तित्व में आया, किंतु तब इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया। लगभग छठी शताब्दी से इसके लिए गुणस्थान शब्द रूढ़ हो गया। जिस प्रकार जीवसमास की प्रथम गाथा में गुणस्थान के लिए 'गुण' का प्रयोग हुआ है, उसी प्रकार मूलाचार में भी इनके लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें चौदह गुणस्थानों का उल्लेख भी है। भगवती आराधना में यद्यपि एक साथ चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, किंतु ध्यान के प्रसंग में ७वें से १४वें गुणस्थान तक की, मूलाचार की अपेक्षा विस्तृत विवेचना हुई है। उसके पश्चात् देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धिं टीका में गुणस्थान (गुणट्ठाण) का विस्तृत वर्णन मिलता है। पूज्यपाद देवनन्दी ने तो सर्वार्थसिद्धि टीका में सत्प्ररूपणा आदि द्वारों की चर्चा में मार्गणाओं की चर्चा करते हुए प्रत्येक मार्गणा के संदर्भ में गुणस्थानों का विस्तृत विवरण दिया है, यह विवरण आंशिक रूप से जीवसमास एवं षट्खण्डागम से समानता रखता है। आचार्य कुन्दकुन्द की ही यह विश्लेषता है कि उन्होंने सर्वप्रथम नियमसार, समयसार आदि में मग्गणाठाण, गुणठाण और जीवठाण का उनके भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। इस प्रकार जीवठाण या जीवसमास शब्द जो समवायांग एवं षट्खण्डागम के काल तक गुणस्थान के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त होते थे, वे अब जीव की विविध योनियों के संदर्भ में प्रयुक्त होने लगे। कुन्दकुन्द के ग्रंथों में जीवस्थान का तात्पर्य जीवों के जन्म ग्रहण करने की विविध योनियों से है। इसका एक फलितार्थ यह है कि भगवती आराधना, मूलाचार तथा कुन्दकुन्द के काल तक जीवस्थान और गुणस्थान दोनों की अलग-अलग स्पष्ट धारणाएं बन चुकी थीं और इन दोनों के विवेच्य विषय भी अलग हो गए थे। जीवस्थान या जीवसमास का सम्बंध जीवयोनियों/जीवजातियों से और गुणस्थान का सम्बंध आत्मविशुद्धि/कर्मविशुद्धि से माना जाने लगा था। ज्ञातव्य है कि आचारांग आदि प्राचीन ग्रंथों में जहां गुण शब्द का प्रयोग बंधक तत्त्व के रूप में हो रहा था, वहां गुण शब्द का प्रयोग गुणस्थान में आत्मविशुद्धि का वाचक बन गया। इस प्रकार यदि गुणस्थान सिद्धांत के ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से विचार करें तो मूलाचार, भगवती आराधना, सर्वार्थसिद्धि टीका एवं कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार आदि सभी ग्रंथ लगभग छठी शती उत्तरार्द्ध या उससे भी परवर्ती ही सिद्ध होते हैं। निश्चय ही प्रस्तुत जीवसमास और षट्खण्डागम उनसे कुछ पूर्ववर्ती है। (26)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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