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________________ जहां तक संस्कार सम्बंधी स्वतंत्र ग्रंथों की रचना का प्रश्न है, वे आगमिकव्याख्याकाल के पश्चात् निर्मित होने लगे थे, किंतु उन ग्रंथों में भी गृहस्थ जीवन सम्बंधी षोडश संस्कारों का कोई उल्लेख हमें नहीं मिलता है। मात्र दिगम्बर परम्परा में जो पुराणग्रंथ हैं, किंतु उनमें इन संस्कारों के विधि-विधान के मात्र संसूचनात्मक कुछ निर्देश ही मिलते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्र (लगभग आठवीं शती) के ग्रंथ जैसे अष्टकप्रकरण, पंचाशक प्रकरण, पंचवस्तु आदि में भी विधि-विधान सम्बंधी कुछ उल्लेख तो मिलते हैं, किंतु उनमें जो विधि-विधान सम्बंधी उल्लेख हैं, वे प्रथमतः तो अत्यंत संक्षिप्त हैं और दूसरे उनमें या तो जिनपूजा, जिनभवन, जिनयात्रा, मुनि दीक्षा आदि से सम्बंधित ही कुछ विधि-विधान मिलते हैं या फिर मुनि आचार सम्बंधी कुछ विधि-विधान का उल्लेख उनमें हुआ है। गृहस्थ के षोडश संस्कारों का सुव्यवस्थित विवरण हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में देखने को नहीं मिलता है। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् नवमीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक मुनि आचार सम्बंधी अनेक ग्रंथों की रचना हुई। जैसे- पादलिप्तसूरिकृत निर्वाणकलिका, जिनवल्लभसूरि विरचित संघपट्टक, चंद्रसूरि की सुबोधासमाचारी, तिलकाचार्यकृत समाचारी, हेमचंद्राचार्य का योगशास्त्र समाचारीशतक आदि कुछ ग्रंथ है। किंतु ये सभी ग्रंथ भी मुख्यतयाः साधना परक और मुनि जीवन से सम्बंधित आचार-विचार का ही उल्लेख करते हैं। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी से विधि-विधान सम्बंधी जिन ग्रंथों की रचना हुई, उसमें 'विधिमार्गप्रपा' को एक प्रमुख ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, किंतु इसमें भी जो विधि-विधान वर्णित है, ' उनका सम्बंध मुख्यतः मुनि आचार से ही है या फिर किसी सीमा तक जिनभवन, जिनप्रतिमा, प्रतिष्ठा आदि से सम्बंधित उल्लेख है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में पं. आशाधर के सागरधर्मामृत एवं अणगारधर्मामृत में तथा प्रतिष्ठाकल्प में कुछ विधिविधानों का उल्लेख हुआ है। सागार-धर्मासृत में गृहस्थ जीवन से सम्बंधित कुछ विधिविधान चर्चित अवश्य हैं, किंतु उसमें भी गर्भधान, पुंसवन जातकर्म, षष्ठीपूजा, अन्नप्राशन, कर्णवेध आदि का कोई विशेष उल्लेख नहीं है। गृहस्थ जीवन, मुनिजीवन और सामान्य विधि-विधान से सम्बंधित मेरी जानकारी में यदि कोई प्रथम ग्रंथ है तो वह वर्धमानसूरीकृत आचारदिनकर (वि.सं.१४६८) ही है। ग्रंथ के रचियता और रचनाकाल जहां तक इस ग्रंथ के रचियता एवं रचना काल का प्रश्न है, इस ग्रंथ की प्रशस्ति
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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