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________________ आचार दिनकर की भूमिका किसी भी धर्म या साधना पद्धति के दो पक्ष होते हैं - १.विचार पक्ष और 2. आचार पक्ष। जैन धर्म भी एक साधना पद्धति है। अतः उसमें भी इन दोनों पक्षों का समायोजन पाया जाता है। जैन धर्म मूलतः भारतीय श्रमण परम्परा का धर्म है। भारतीय श्रमण परम्परा अध्यात्मपरक रही है और यही कारण है कि उसने प्रारम्भ में वैदिक कर्मकाण्डीय परम्परा की आलोचना भी की थी, किंतु कालान्तर में वैदिक परम्परा के कर्मकाण्डों का प्रभाव उस पर भी आया। यद्यपि प्राचीन काल में जो जैन आगम ग्रंथ निर्मित हुए, उनमें आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षाएं ही प्रधान रही हैं, किंतु कालान्तर में जो जैन ग्रंथ निर्मित हुए उनमें वैदिक परम्परा के प्रभाव से कर्मकाण्ड का प्रवेश भी हुआ। पहले गौण रूप में और फिर प्रकट रूप में कर्मकाण्ड परक ग्रंथ जैन परम्परा में भी लिखे गए। भारतीय वैदिक परम्परा में यज्ञ-याग आदि के साथ-साथ गृही जीवन के संस्कारों का भी अपना स्थान रहा है और प्रत्येक संस्कार के लिए यज्ञ-याग एवं तत्सम्बंधी कर्मकाण्ड एवं उसके मंत्र भी प्रचलित रहे। मेरी यह सुस्पष्ट अवधारणा है कि जैन परम्परा में षोडश संस्कारों का और उनके विधि-विधान का जो प्रवेश हुआ है, वह मूलतः हिन्दू परम्परा के प्रभाव से ही आया है। यद्यपि परम्परागत अवधारणा यही है कि गृहस्थों के षोडश संस्कार और उनके विधि-विधान भगवान ऋषभदेव के द्वारा प्रवर्तित किए गए थे। आचारदिनकर में भी वर्धमानसूरि ने इसी परम्परागत मान्यता का उल्लेख किया है। जहां तक जैन आगमों का प्रश्न है, उसमें कथापरक आगमों में गर्भधान संस्कार का तो कोई उल्लेख नहीं है, किंतु उनमें तीर्थंकरों के जीव के गर्भ में प्रवेश के समय माता द्वारा स्वप्न दर्शन के उल्लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त जातकर्म संस्कार, सूर्य-चंद्र दर्शन संस्कार, षष्ठी संस्कार, नामकरण संस्कार, विद्याध्ययन संस्कार आदि कुछ संस्कारों के उल्लेख भी उनमें मिलते हैं, किंतु वहां तत्सम्बंधी विधि-विधानों का उल्लेख नहीं मिलता है, फिर भी इससे इतना तो सिद्ध होता है कि उस काल में जैन परम्परा में भी संस्कार सम्बंधी कुछ विधान किए जाते थे। यद्यपि मेरी अवधारणा यही है कि जैन समाज के बृहद हिन्दू समाज का ही एक अंग होने के कारण जन सामान्य में प्रचलित जो संस्कार आदि की सामाजिक क्रियाएं थी, वे जैनों द्वारा भी मान्य थी, किंतु ये संस्कार जैन धर्म की निवृत्तिपरक साधना विधि का अंग रहे होंगे, यह कहना कठिन है। (192)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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