________________ में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख कियागया है कि वि.सं.१४६८ में जालंधर नगर (पंजाब) में इस ग्रंथ की रचना हुई। ग्रंथ प्रशस्ति से यह भी स्पष्ट होता है कि यह ग्रंथ अभयदेवसरि के शिष्य वर्धमानसूरि द्वारा रचित है। अभयदेवसूरि और वर्धमानसूरि जैसे प्रसिद्ध नामों को देखकर सामान्यतयाः चंद्रकुल के वर्धमानसूरि, नवांगीटीकार अभयदेवसूरि का स्मरण हो आता है, किंतु आचारदिनकर के कर्ता वर्धमानसूरि इनसे भिन्न हैं। अपनी सम्पूर्ण वंश परम्परा का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपने को खरतरगच्छ की रूद्रपल्ली शाखा के अभयदेवसूरि (तृतीय) का शिष्य बताया है। ग्रंथ प्रशस्ति में उन्होंने जो अपनी गुरु परम्परा सूचित की है, वह इस प्रकार है आचार्य हरिभद्र देवचंद्रसूरि नेमीचंद्रसूरि उद्योतनसूरि वर्धमानसूरि जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि (प्रथम) जिनवल्लभसूरि इसके पश्चात् जिनवल्लभ के शिष्य जिनशेखर से रूद्रपल्ली शाखा की स्थापना को बताते हुए उसकी आचार्य परम्परा जिन्म प्रकार से दी है