________________ तो था ही, क्योंकि वल्लभी में कोई नए आगम नहीं बने थे। उमास्वाति के सम्मुख जो आगम ग्रंथ उपस्थित थे, वे न तो देवर्धि की वल्लभी (वीर.सं.९८०) के थे और न स्कन्दिल की माथुरी वाचना वीर नि.सं. 840 के थे, अपितु उसके पूर्व की आरक्षित की वाचना के थे। यही कारण है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र की अवधारणाओं में भी कहीं-कहीं वलभी वाचना से भिन्नता परिलक्षित होती है। ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में जो आगम ग्रंथ उपस्थित थे, वे ही उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का उपजीव्य बने है। साथ ही यह भी सत्य है कि उन प्राचीन आगमों का माथुरी और वल्लभी वाचनाओं में संकलन एवं सम्पादन हुआ है, नव-निर्वाण नहीं, अतः यह मानना भी बिलकुल गलत होगा कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति के सम्मुख जो आगम उपस्थित थे व वर्तमान श्वेताम्बर मान्य आगमों से बिलकुल भिन्न थे। वे मात्र इनका पूर्व संस्करण थे। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र और उसका टीका साहित्य विपुल मात्रा में प्रकाशित है। श्वेताम्बर परम्परा में स्वोपज्ञ भाष्य और सिद्धसेन गणित की टीका में प्रकाशित है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोक वार्तिक आदि टीकाएं हिन्दी अनुवाद के साथ भी प्रकाशित हैं। श्वेताम्बर परम्परा को मान्य स्वोपज्ञ दिगम्बर विद्वान पं. खूबचंदजी के द्वारा हिन्दी में अनुदित होकर प्रकाशित हुआ था, किंतु अब वह भी अनुपलब्ध है, सिद्धगणिं की टीका का हिन्दी में कोई अनुवाद नहीं हुआ है। मूलतत्त्वार्थ सूत्र के हिन्दी अनुवाद जो व्याख्या के साथ उपलब्ध हैं, उनमें श्वेताम्बर परम्परा में पं.सुखलालजी और केवलमुनिजी के विशेष लोकप्रिय हैं। दिगम्बर परम्परा में पं.फूलचंदजी और पं.कैलाशचंद्रजी के अनुवाद विशेष लोकप्रिय हुए हैं। गुजराती में भी पं. सुखलालजी का अनुवाद ही विशेष रूप में प्रचलित है। जहां समग्र तत्त्वार्थसूत्र के अंग्रेजी अनुवाद का प्रश्न है, दीक्षित एवं नथमलजी टांटिया के अनुवाद ही हमारी जानकारी में हैं। दीक्षितजी द्वारा अनुवादित संस्करण एल.डी. इन्स्टीट्यूट से प्रकाशित हुआ था, अब उसकी उपलब्धता की क्या स्थिति है मुझे ज्ञात नहीं है। प्रो.नथमलजी टांटिया का अंग्रेजी अनुवाद जो ग्रेट ब्रिटेन (इंग्लैण्ड) से प्रकाशित हुआ है, उसमें कहीं-कहीं पारिभाषिक शब्दों के ऐसे अंग्रेजी रूपांतरण हुए हैं, जिसे सामान्य पाठक सहज रूप में समझ नहीं पाता है जैसे आस्रव के लिए इनकम शब्द। दूसरे यह संस्करण इतना महंगा है कि सामान्य भारतीय इसे खरीद भी नहीं सकता है। इसलिए एक ऐसे संस्करण की अपेक्षा थी जो जनसामान्य की ग्रहण सामर्थ्य में हो। श्री छगनलालजी