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________________ शिल्प में मुनियों की मूर्तियों के जो अंकन हैं, उसमें वे सचेल और सपात्र होकर भी नग्न हैं। इन मूर्तियों के अंकन का काल और उमास्वाति का काल एक ही है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि चाहे उमास्वाति को अपवाद मार्ग में मुनि के द्वारा वस्त्र और पात्र ग्रहण करने के विरोधी भले न हो, किंतु वे उस अर्थ में सचेलता के समर्थक भी नहीं हैं, जिस अर्थ में आज श्वेताम्बर उसका अर्थ ग्रहण करते हैं। वे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्वज हैं। यद्यपि इतना निश्चित है कि वे दक्षिण भारत की प्राचीन निग्रंथ धारा से सीधे सम्बद्ध नहीं थे, क्योंकि वे उत्तर भारत में हुए हैं। उनका जन्म स्थान न्यग्रोधिका और उनकी उच्चनागर शाखा का उत्पत्ति स्थल उच्चकल्पनगर आज भी उत्तरपूर्व मध्यप्रदेश में सतना के निकट नागोद और ऊंचेहरा के नाम से अवस्थित हैं। उनका विहार-क्षेत्र भी मुख्य रूप से पटना से मथुरा तक रहा है। इस सबसे यही फलित होता है कि वे दक्षिण भारत की अचेल धारा से सम्बद्ध न होकर उत्तर भारत की उस धारा से सम्बद्ध रहे हैं, जिससे आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय देशों परम्पराओं का विकास हुआ है। दक्षिण भारत की निग्रंथ परम्परा जो आगे चलकर दिगम्बर नाम से अभिहित हुई, उनसे यापनीयों के माध्यम से ही परिचित हुई है। तत्त्वार्थसूत्र के आधारभूत ग्रंथ . उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के आधार के रूप में जहां श्वेताम्बर विद्वान श्वेताम्बर मान्य आगमों को प्रस्तुत करते हैं, वहीं दिगम्बर विद्वान षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रंथों का तत्त्वार्थसूत्र का आधार बताते हैं, किंतु ये दोनों ही मान्यताएं भ्रांत हैं, क्योंकि उमास्वाति के काल तक न तो षट्खण्डागम और न कुन्दकुन्द के ग्रंथ अस्तित्व में आए थे और न श्वेताम्बर मान्य आगमों की वल्लभी वाचना ही हो पाई थी। षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रंथ जिनमें गुणस्थान सिद्धांत का विकसित रूप उपलब्ध है, तत्त्वार्थ के पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं। गुणस्थान सिद्धांत और सप्तभंगी की अवधारणाएं जो तत्त्वार्थ में अनुपस्थित हैं, वे लगभग पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अस्तित्व में आईं। अतः उनसे युक्त ग्रंथ तत्त्वार्थ के आधार नहीं हो सकते हैं। वल्लभी की वाचना भी विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में ही सम्पन्न हुई है, अतः वल्लभ वाचना में सम्पादित आगम-पाठ भी तत्त्वार्थसूत्र का आधार नहीं माने जा सकते हैं, किंतु यह मानना भी भ्रांत होगा कि तत्त्वार्थ का आधार आगम ग्रंथ नहीं थे। वल्लभी वाचना में आगमों का संकलन एवं सम्पादन तो हुआ तथा उन्हें लिपिबद्ध भी किया गया, किंतु उससे पूर्व उन आगम ग्रंथों का अस्तित्व (168
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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