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________________ से विरोध है। इसी कारण सम्भवतः पं.नाथूरामजी प्रेमी ने इस ओर झुकने का प्रयत्न किया कि यह यापनीय परम्परा का ग्रंथ है। उनके इस तर्क में कुछ बल भी है, क्योंकि परम्पराओं के विरोध में जाती हैं, वहीं पुण्यप्रकृति की चर्चा के प्रसंग में वह यापनीयों के अधिक निकट भी है, फिर भी जब तक हम यह सुनिश्चित नहीं कर लें कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना और यापनीय की उत्पत्ति में कौन पूर्ववर्ती है, तब तक हमें यह कहने का अधिकार नहीं मिल जाता कि तत्त्वार्थसूत्र यापनीय ग्रंथ है। प्रस्तुत भूमिका में मैंने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा के प्रश्न को लेकर सभी परम्परागत विद्वानों की मान्यताओं की समीक्षा की है और यह देखने का प्रयत्न किया है कि यथार्थ स्थिति क्या है। इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि तत्त्वार्थसूत्र उस काल की रचना है जब जैनों में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आए थे। हां इतना अवश्य था कि आचार्यों में आचार एवं दर्शन के सम्बंध में कुछ मान्यता भेद थे- जैसे कि आज भी एक ही सम्प्रदाय में देखे जाते हैं, वस्तुतः तत्त्वार्थ की रचना उत्तर-भारत की उस निग्रंथ धारा में हुई, जिससे आगे चलकर श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं का विकास हुआ है। . उमास्वाति उस काल में हुए हैं जब वैचारिक एवं आचारगत मतभेदों के होते हुए भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ था। इसी का यह परिणाम है कि उनके ग्रंथों में कुछ तथ्य श्वेताम्बरों के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल, कुछ तथ्य दिगम्बरों के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल तथा कुछ यापनियों के अनुकूल एवं कुछ उनके प्रतिकूल पाए जाते हैं। वस्तुतः उनकी जो भी मान्यताएं हैं, उच्चनागर शाखा की मान्यताएं हैं। अतः मान्यताओं के आधार पर वे कोटिकगण की उच्चनागर शाखा के थे। उन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय मान लेना सम्भव नहीं है। ___उमास्वाति को यापनीय ग्रंथ षट्खण्डागम आदि का अनुसरणकर्ता मानकर यापनीय कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि यापनीय परम्परा पांचवीं शताब्दी के पश्चात् ही अस्तित्व में आई है और षट्खण्डागम आदि में गुणस्थान सिद्धांत का विस्तृत विवरण होने से वे तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती हैं। वस्तुतः उमास्वाति श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही धाराओं की पूर्वत उत्तर भारत की निग्रंथ धारा की उच्चनागर शाखा में हुए हैं। यह सम्भव है कि वे सचेल पक्ष के समर्थक रहे हों, किंतु इस आधार पर उन्हें श्वेताम्बर नहीं कहा जा सकता। अपवाद रूप में सचेलता तो यापनीयों को भी मान्य थी। हम देखते हैं कि मथुरा के (167)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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