________________ विरहकाल का विवेचन है। २००वें द्वार में देवों के उपपात के विरहकाल का और २०१वें द्वार में देवों के उपपात की संख्या का विवेचन किया गया है। 202 और २०३वें द्वारों में क्रमशः देवों की गति और आगति का विवेचन है। २०४वां द्वार सिद्ध गति में जाने वाले जीवों के बीच जो अंतराल अर्थात् विरहकाल होता है उसका विवेचन करता है। २०५वें द्वार में जीवों के आहारादि के स्वरूप का विवेचन है। २०६वें द्वार में तीनसौत्रेसठ पाखंडी मतों का विस्तृत विवेचन किया गया है। २०७वें द्वार में प्रमाद के आठ भेदों का विवेचन है। २०८वें द्वार में बारह चक्रवर्तियों का, २०९वें द्वार में नौ बलदेवों का, २१०वें द्वार में नौ वासुदेवों का और २११वें द्वार में नौ प्रतिवासुदेवों का संक्षिप्त विवेचन उपलब्ध होता है। २१२वें द्वार में चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के क्रमशः चौदह और सात रत्नों का विवेचन है। . २१३वें द्वार में चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की नव निधियों का विवेचन किया गया है। २१४वां द्वार विभिन्न योनियों में जन्म लेने वाले जीवों की संख्या आदि का विवेचन करता है। २१५वे द्वार से लेकर २२०वें द्वार तक छः द्वारों में जैनकर्मसिद्धांत का विवेचन उपलब्ध होता है। इनमें क्रमशः आठ मूल प्रकृतियों, एक सौ अट्ठावन उत्तर प्रकृतियों, उनके बंध आदि के स्वरूप तथा उनकी स्थिति का विवेचन किया गया है। अंतिम दो द्वारों में क्रमशः बयालीस पुण्य प्रकृतियों का और बयासी पाप प्रकृतियों का विवेचन है। २२१वें द्वार में जीवों के क्षायिक आदि छः प्रकार के भावों का विवेचन है, इसके साथ ही इस द्वार में विभिन्न गुणस्थानों में पाए जाने वाले विभिन्न भावों का भी विवेचन किया गया है। २२२वां एवं २२३वां क्रमशः जीवों के चौदह और अजीवों के चौदह प्रकार का विवेचन करता है। २२४वें द्वार में चौदह गुणस्थानों का, २२५वें द्वार में चौदह मार्गणाओं का,