________________ जैनदर्शन में पांच इंद्रियां मन-वचन और काया- ऐसे तीन बल, श्वासाच्छ्वास और आयु ऐसे दस प्राण माने गए हैं। १७१वें द्वार में दस प्रकार के कल्पवृक्षों की चर्चा है। १७२वें द्वार में सात नरक भूमियों के नाम और गोत्र का विवेचन किया गया है। आगे 173 से लेकर 182 तक के सभी द्वार नारकीय जीवन के विवेचन से सम्बद्ध हैं। १७३वें द्वार में नरक के आवासों का, १७४वें द्वार में नारकीय वेदना का, १७५वें द्वार में नारकों की आयु का, १७६वें द्वार में नारकीय जीवों के शरीर की लम्बाई आदि का विवेचन किया गया है। पुनः १७७वें द्वार में नरक गति में प्रतिसमय उत्पत्ति और अंतराल का विवेचन है। १७८वां द्वार किस नरक के जीवों में कौनसी द्रव्य लेश्या पाई जाती है, इसका विवेचन करता है, जबकि १७९वां द्वार नारक जीवों के अवधि-ज्ञान के स्वरूप का विवेचन करता है। १८०वें द्वार में नारकीय जीवों को दण्डित करने वाले परमाधामी देवों का विवेचन किया गया है। १८१वें द्वार में नारकीय जीवों की लब्धि अर्थात् शक्ति का विवेचन है, जबकि १८२वें, 183 और १८४वें द्वारों में नारकीय जीवों के उपपात अर्थात् जन्म का विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें यह बताया गया है कि जीव किन योनियों में मरकर कौनसी नरक में उत्पन्न होता है और नारकीय जीव मरकर तिर्यच और मनुष्य योनियों में कहां-कहां जन्म लेते हैं। 185 से 191 तक के सात द्वारों में क्रमशः एकेन्द्रिय जीवों की कायस्थिति, भवस्थिति, शरीर परिमाण, इंद्रियों के स्वरूप, इंद्रियों के विषय, एकेन्द्रिय जीवों की लेश्या तथा उनकी गति और आगति का विवेचन उपलब्ध होता है। 192 और १९३वें द्वारों में विकलेंद्रिय आदि की उत्पत्ति, च्यवन एवं विरहकाल (अंतराल) का तथा जन्म और मृत्यु प्राप्त करने वालों की संख्या का विवेचन है। __ १९४वें द्वार में भवनपति आदि देवों की कायस्थिति, १९५वे द्वार में उनके भवनादि का स्वरूप १९६वें द्वार में इन देवों के शरीर की लम्बाई आदि और १९७वें द्वार में विभिन्न देवों में पाई जाने वाली द्रव्य लेश्या का विवेचन है। इसी क्रम में १९८वें द्वार में देवों के अवधिज्ञान के स्वरूप का और १९९वें द्वार में देवों की उत्पत्ति में होने वाले (152)