________________ की चौदह लाख, द्वीन्द्रिय की दो लाख, त्रीन्द्रिय की दो लाख, चउरिन्द्रीय की दो लाख. नारक चार लाख, देवता चार लाख, तिर्यच चार लाख, मनुष्यों की चौदह लाख प्रजाति (योनि) मानी गई है। १५वे द्वार में गृहस्थ उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन है। ये ग्यारह प्रतिमाएं निम्न हैं- (1) दर्शनप्रतिमा, (2) व्रतप्रतिमा, (3) सामायिकप्रतिमा, (4) पौषधोपवासप्रतिमा, (5) नियमप्रतिमा, (6) सचित्तत्यागप्रतिमा, (7) ब्रह्मचर्यप्रतिमा, (8) आरम्भत्यागप्रतिमा, (9) प्रेष्यत्यागप्रतिमा, (10) औद्देशिक-आहारत्यागप्रतिमा, (11) श्रमणभूतप्रतिमा। १५४वें द्वार में विभिन्न प्रकार के धान्यों के बीज कितने काल तक सचित्त रहते हैं और कब निर्जीव हो जाते हैं, इसका विवेचन किया गया है। १५५वें द्वार में कौनसी वस्तुएं क्षेत्रातीत होने पर अचित्त हो जाती हैं, इसका विवेचन किया गया है। इसी क्रम में १५६वे द्वार में गेहूं, चावल, मूंग-तिल आदि चौबीस प्रकार के धान्यों का विवेचन किया गया है। १५७वे द्वार में समवायांगसूत्र के समान सतरह प्रकार के मरण (मृत्यु) का विवेचन है। १५८वें और १५९वें द्वारों में क्रमशः पल्योपम और सागरोपम के स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है। इसी क्रम में १६०वें और १६१वें द्वारों में क्रमशः अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणीकाल के स्वरूप का विवेचन किया गया है। उसके पश्चात् १६२वें द्वार में पुद्गलपरावर्तकाल के स्वरूप का विवेचन हुआ है। __ १६३वें और १६४वें द्वारों में क्रमशः पंद्रह कर्मभूमियों और तीस अकर्मभूमियों का विवेचन किया गया है। १६५वें द्वार में जातिमद, कुलमद आदि आठ प्रकार के मदों (अहंकारों) का विवेचन है। १६६वें द्वार में हिंसा के दो और तियालीस भेदों का विवेचन उपलब्ध होता है। इसी प्रकार १६७वें द्वार में परिणामों के एक सौ आठ भेदों की चर्चा की गई है। १६८वें द्वार में ब्रह्मचर्य के अट्ठारह प्रकारों की चर्चा है और १६९वें द्वार में काम के चौबीस भेदों का विवेचन किया गया है। . इसी क्रम में आगे १७०वें द्वार में दस प्रकार के प्राणों की चर्चा की गई है। (151)