________________ इसका निश्चय करे। इसमें यह बताया गया है - किस अंग/क्षेत्र में निवास करने का क्या फल होता है, इसकी भी चर्चा है। ___ १३६वें द्वार में किस ऋतु में किस प्रकार का जल कितने काल तक प्रासुक रहता है और बाद में सचित्त हो जाता है, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यतया यह माना जाता है कि उष्ण किया हुआ प्रासुक जल ग्रीष्म ऋतु में पांच प्रहर तक, शीत ऋतु में चार प्रहर तक और वर्षा ऋतु में तीन प्रहर तक प्रासुक (अचित्त) रहता है और बाद में सचित्त हो जाता है। यद्यपि चूना डालकर अधिक समय तक उसे प्रासुक रखा जा सकता है। १३७वें द्वार में पशु-पक्षी आदि तिर्यंच-जीवों की मादाओं के सम्बंध में विवेचन किया गया है। १३८वें द्वार में इस अवसर्पिणी काल में घटित हुए दस प्रकार के आश्चर्यों जैसे महावीर के गर्भ का संहरण, स्त्री-तीर्थंकर आदि का वर्णन किया गया है। १३९वें द्वार में सत्य, मृषा, सत्य-मृषा (मिश्र) और असत्य-अमृषा ऐसी चार प्रकार की भाषाओं का उनके अवान्तर भेदों और उदाहरणों सहित विवेचन किया गया है। १४०वां द्वार वचन षोडसक अर्थात् सोलह प्रकार के वचनों का उल्लेख करता है। 141 वें द्वार में मास पंचक और १४२वें द्वार में वर्ष पंचक का विवेचन है। . १४३वें द्वार में लोक के स्वरूप (आकार-प्रकार) का विवेचन है। इसी क्रम में यहां लोक पुरुष की भी चर्चा की गई है। 144 से लेकर 147 तक चार द्वारों में क्रमशः तीन, चार, दस और पंद्रह प्रकार की संज्ञाओं का विवेचन किया गया है। १४८वें द्वार में सम्यक्त्व के सड़सठ भेदों का विवेचन है, जबकि १४९वें द्वार में सम्यक्त्व के एक-दो आदि विभिन्न भेदों की विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। १५०वें द्वार में पृथ्वीकाय आदि षट् जीवनिकाय के कुलों की संख्या का विवेचन है। प्राणियों की प्रजाति को योनि और उनकी उप-प्रजातियों को कुल कहते हैं। इन कुलों की संख्या एक करोड़ सत्तान लाख पचास हजार मानी गई हैं। १५१वें द्वार में चौरासी लाख जीव योनियों का विवेचन किया गया है। इस द्वार में पृथ्वीकाय की सात लाख, अपकाय की सात लाख, अग्नि काय की सात लाख, वायुकाय की सात लाख, प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख, साधारण वनस्पतिकाय (150)