________________ जबकि १२५वें द्वार में मुनि के लिए वस्त्र-ग्रहण की विधि बताई गई है। १२६वें द्वार में आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- ऐसे पांच व्यवहारों की चर्चा है। . १२७वें द्वार में निम्न पांच प्रकार के यथाजात का उल्लेख है। (1) चोलपट्ट, (2) रजोहरण, (3) और्णिक, (4) क्षौमिक और (5) मुखवत्रिका। इन उपकरणों से ही श्रमण का जन्म होता है। अतः इन्हें यथाजात कहा गया है। १२८वें द्वार में मुनियों के रात्रि-जागरण की विधि का विवेचन है। उसमें बताया गया है कि प्रथम प्रहर में आचार्य, गीतार्थ और सभी साधु मिलकर स्वाध्याय करें। दूसरे प्रहर में सभी मुनि और आचार्य सो जाएं और गीतार्थ मुनि स्वाध्याय करें। तीसरे प्रहर में आचार्य जागृत होकर स्वाध्याय करें और गीतार्थ मुनि सो जाएं। चौथे प्रहर में सभी साधु उठकर स्वाध्याय करें। आचार्य और गीतार्थ सोए रहें, क्योंकि उन्हें बाद में प्रवचन आदि कार्य करने होते हैं। १२९वें द्वार में जिस व्यक्ति के सामने आलोचना की जा सकती है, उसको खोजने की विधि बताई गई है। १३०वें द्वार में प्रति जागरण के काल के सम्बंध में विवेचन किया गया है। १३१वें द्वार में मुनि की उपधि अर्थात् संयमोपकरण के धोने के काल का विवेचन है, इसमें यह बताया गया है कि किस उपधि को कितने काल के पश्चात् धोना चाहिए। १३२वें द्वार में साधु-साध्वियों के आहार की मात्रा कितनी होना चाहिए, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यतः यह बताया गया है कि मुनि को बड़े आंवले के आकार के बत्तीस कौर और साध्वी को अट्ठावीस कौर आहार ग्रहण करना चाहिए। १३३वें द्वार में वसति अर्थात् मुनि के निवास-स्थान की शुद्धि आदि का विवेचन किया गया है। मुनि के लिए किस प्रकार का आवास ग्राह्य होता है, इसकी विवेचना इस द्वार में की गई है। १३४वें द्वार में संलेखना सम्बंधी विधि-विधान का विस्तृत विवेचन किया गया है। १३५वें द्वार में यह बताया गया है कि नगर की कल्पना पूर्वाभिमुख वृषभ के रूप में करे। उसके पश्चात् उसे उस वृषभ रूप कल्पित नगर में किस स्थान पर निवास करना है,