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________________ अनुपात क्या था, इसकी भी चर्चा हुई है। यहां यह भी बताया गया है कि एक लाख साभारक के मूल्य वाला वस्त्र उत्कृष्ट होता है और अट्ठारह साभारक या उससे भी कम मूल्य वाला वस्त्र जघन्य होता है। इन दोनों के मध्य का वस्त्र मध्यम कोटि का माना जाता है। मुनि के लिए अल्प मूल्य का वस्त्र ही ग्रहण करने योग्य है। ११२वें द्वार में शय्यातर पिण्ड अर्थात् जिसने निवास के लिए स्थान दिया हो, उसके यहां से भोजन ग्रहण करना निषिद्ध माना गया है। इसी क्रम में अट्ठारह प्रकार के शय्यातरों का उल्लेख भी हुआ है। _११३वें द्वार में श्रुतज्ञान और सम्यक्त्व के पारस्परिक सम्बंध की चर्चा हुई है। ११४वें द्वार में पांच प्रकार के निग्रंथों का पांच प्रकार के ज्ञानों से और चार प्रकार की गतियों से सम्बंध बताया गया है। ११५वें द्वार में जिस क्षेत्र में सूर्य उदित हो गया है, उस क्षेत्र में गृहीत अशन आदि ही कल्प्य होता है, शेष कालातिक्रांत कहलाता है, जो अकल्प्य (अग्राह्य) है। ११६वें द्वार में यह बताया गया है कि दो कोस से अधिक दूरी से लाया गया भोजन-पान क्षेत्रातीत कहलाता है और यह मुनि के लिए अकल्प्य है। ११७वें द्वार में यह बताया गया है कि प्रथम प्रहर में लिया गया भोजन-पान आदि तीसरे प्रहर तक भोज्य होते हैं, उसके बाद वे कालातीत होकर अकल्प्य हो जाते हैं। __ ११८वें द्वार में पुरुष के लिए बत्तीस कवल भोजन ही ग्राह्य माना गया है बत्तीस कवल से अधिक भोजन प्रमाणातिक्रांत होने से अकल्प्य माना गया है। ११९वें द्वार में चार प्रकार के निवास-स्थानों को दुख शय्या बताया गया है। इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जिन स्थानों पर अश्रद्धालु जन रहते हों, जहां पर दूसरों से कुछ प्राप्ति के लिए प्रार्थनाएं की जाती हो, जहां मनोज्ञ शब्द, रूप अथवा भोजन आदि मिलते हों और जहां गत्राभ्यंगन अर्थात् मर्दन आदि होता हो, वे स्थान मुनि के निवास के अयोग्य हैं। १२०वें द्वार में इसके विपरीत चार प्रकार की सुख शय्या अर्थात् मुनि के निवास के योग्य माने गए हैं। १२१वें द्वार में तेरह क्रियास्थानों की, १२२वें द्वार में श्रुतसामायिक, दर्शनसामायिक, देशसामायिक और सर्वसामायिक- ऐसी चार सामायिक की और १२३वें द्वार में अट्ठारह शीलांगों की चर्चा है। पुनः १२४वें द्वार में सात नयों की चर्चा की गई है, (148)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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