________________ २२६वें द्वार में बारह उपयोगों का और २२७वें द्वार में पंद्रह योगों का विवेचन है। __२२८वें द्वार में गुणस्थानों में रहते हुए परलोक गमन का, २२९वें द्वार में गुणस्थानों का काल-मान, 230 से २३२वें द्वार में विकुर्वणा काल, 7 प्रकार के समुद्घात और 6 पर्याप्तियों का विश्लेषण है। २३३वें द्वार में 4 प्रकार के अनाहरक, २३४वें द्वार में 7 प्रकार के भयस्थान, २३५वे द्वार में 6 प्रकार की अप्रशस्तभाषा का वर्णन है। २३६वें द्वार में श्रावक के 12 व्रतों के जो भंग बनते हैं, उनका शास्त्रीय दृष्टि से प्रामणिक विवेचन हैं। - २३७वें द्वार में अठारह प्रकार के पापों का विवेचन है। २३८वे द्वार में मुनि के सत्ताइस मूल गुणों का विवेचन है। २३९वें द्वार में श्रावक के इक्कीस गुणों का विवेचन किया गया है। २४०वें द्वार में तिर्यच जीवों की गर्भ स्थिति के उत्कृष्ट काल का विवेचन किया गया है, जबकि २४१वें द्वार में मनुष्यों की गर्भ स्थिति के सम्बंध में विवेचन है। २४२वां द्वार मनुष्य की काय स्थिति को स्पष्ट करता है। . २४३वें द्वार में गर्भ में स्थित जीव के आहार के स्वरूप का विवेचन है, तो २४४वें द्वार में गर्भ का धारण कब सम्भव होता है, इसका विवरण दिया गया है। २४५वें और २४६वें द्वार में क्रमशः यह बताया जाता है कि एक पिता के कितने पुत्र हो सकते हैं? और एक पुत्र के कितने पिता हो सकते हैं। यह आधुनिक जीव विज्ञान की दृष्टि से भी एक रोचक विषय है। ___ २४७वें द्वार में स्त्री-पुरुष कब संतानोत्पत्ति के अयोग्य होते हैं, इसका विवेचन किया गया है। २४८वें द्वार में वीर्य आदि की मात्रा के सम्बंध में चर्चा की गई है। इसमें यह भी बताया है कि एक शरीर में रक्त वीर्य आदि की कितनी मात्रा होती है। २४९वें द्वार में सम्यक्त्व आदि की उपलब्धि में किस अपेक्षा से कितना अंतराल होता है, इसका विवेचन किया गया है। २५०वें द्वार में मनुष्य भव में किनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है। २५१वें द्वार में ग्यारह अंगों के परिमाण का और २५२वें द्वार में चौदह पूर्वो के परिमाण का विवेचन है। इनमें मुख्य रूप से यह बताया है कि किस अंग और किस पूर्व की कितनी श्लोक संख्या होती है। 253- द्वार में लवण शिखा के परिमाण का उल्लेख है। २५४वां द्वार विभिन्न