SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजितसिंहसूरि - देवप्रभसूरि और सिद्धसेनसूरि। टीकाकार सिद्धसेनसूरि की तीन अन्य कृतियों - (1) पद्मप्रभचरित्र, (2) समाचारी और (3) एक स्तुति का उल्लेख मिलता है। प्रवचनसारोद्धार की तत्त्वज्ञान-विकासिनी नामक यह वृत्ति या टीका भी टीकाकार की बहुश्रुतता को अभिव्यक्त करती है। उन्होंने अपनी टीका में लगभग 100 ग्रंथों का निर्देश किया है और उनके 500 से अधिक संदर्भो का संकलन किया है। इन उद्धरणों की सूची भी पिण्डवाडा से प्रकाशित प्रवचनसारोद्धार भाग-२ के अंत में दी गई है। इससे वृत्तिकार की बहुश्रुतता प्रमाणित हो जाती है। वृत्तिकार ने जहां आवश्यकता हुई वहां न केवल अपनी विवेचना प्रस्तुत की, अपितु पूर्वपक्ष को प्रस्तुत कर उसका समाधान भी किया है। जहां कहीं भी उन्हें व्याख्या में मतभेद की सूचना प्राप्त हुई, उन्होंने स्पष्ट रूप से अन्य मत का भी निर्देश किया है। इसी प्रकार जहां मूल पाठ के संदर्भ में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति दिखाई दी, उन्होंने पाठ को अपनी दृष्टि से शुद्ध बनाने का भी प्रयत्न किया है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ की यह टीका भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। प्रवचनसारोद्धार की विषयवस्तु . प्रवचनसारोद्धार के प्रारम्भ में मंगल अभिधान के पश्चात् 63 गाथाओं में प्रवचनसारोद्धार के 276 द्वारों का उल्लेख किया गया है, इन द्वारों के नामों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कृति में जैन धर्म व दर्शन के विविध पक्षों को समाहित करने का प्रयत्न किया गया है। यद्यपि प्रवचनसारोद्धार' में मूल गाथाओं की संख्या मात्र 1599 है, फिर भी इसमें जैन धर्म व दर्शन के अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों को समाहित करने का प्रयास किया गया है। मूल गाथाओं की संख्या कम होते हुए भी इसका विषय वैविध्य इतना है कि इसे 'जैन-धर्म-दर्शन का लघुविश्वकोष' कहा जा सकता है। आगे हम इसके 276 द्वारों की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। ‘प्रवचनसारोद्धार' के प्रथम द्वार में चैत्यवंदन विधि का विवेचन किया गया है। चैत्यवंदन के सम्बंध में सर्वप्रथम दसत्रिकों की चर्चा की गई है। ये दस त्रिक निम्न हैं(१) त्रि-निषेधिका, (2) त्रि-प्रदक्षिणा, (3) त्रि-प्रणाम, (4) त्रिविध-पूजा, (5) त्रि-अवस्था/भावना, (6) त्रिदिशा-निरीक्षणविरति, (7) त्रिविध भूमिप्रमार्जन, (8) वर्ण-त्रिक, (9) मुद्रा-त्रिक और (10) प्रणिधान-त्रिक। (137
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy