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________________ समय आगम अथवा प्राचीन आचार्यों की कृतियों से बिना नाम निर्देश के गाथाएं उद्धृत कर लेने की प्रवृत्ति रही है और इस प्रकार की प्रवृत्ति श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के रचनाकारों में पाई जाती हैं। उदाहरण के रूप में मूलाचार में उत्तराध्ययनसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि अनेक ग्रंथों की 200 से अधिक गाथाएं उद्धृत हैं। यही स्थिति भगवत-आराधना एवं आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार आदि ग्रंथों की भी है। नियमसार षट्प्राभृत आदि की अनेक गाथाएं श्वेताम्बर आगमों प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं भाष्यों आदि में समान रूप से मिलती हैं। श्वेताम्बर मान्य आगमों में भी संग्रहणी सूत्र आदि की एवं प्रकीर्णकों में एक दूसरे की अनेक गाथाएं अवतरित की गई हैं। इस प्रकार अपने ग्रंथों में अन्य ग्रंथों से गाथाएं अवतरित करने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। ऐसी स्थिति में जब दूसरे-दूसरे आचार्यों को तत् तत् ग्रंथ का रचनाकार मान / लिया जाता है, तो नेमिचंद्रसूरि (द्वितीय) को प्रस्तुत कृति का कर्ता मान लेने पर कौनसी आपत्ति है? पुनः 1600 गाथाओं के इस ग्रंथ में यदि 600 गाथाएं अन्य कर्तृक हैं भी, तो शेष 1000 गाथाओं के रचनाकार तो नेमिचंद्रसूरि (द्वितीय) हैं ही। प्रवचनसारोद्धार की कौनसी गाथा किस ग्रंथ में किस स्थान पर मिलती है अथवा अन्य ग्रंथों की कौनसी गाथाएं प्रवचनसारोद्धार के किस क्रम पर हैं, इसकी सूची परिशिष्ट 1-2 में प्रस्तुत की गई है। ये सूचियां मुनि पद्मसेनविजयजी एवं डॉ. श्री प्रकाश पाण्डे की सूचना के आधार पर निर्मित हैं। प्रवचनसारोद्धार की टीका और टीकाकार प्रवचनसारोद्धार पर आचार्य सिद्धसेनसूरि की लगभग विक्रम की १३वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखी गई तत्त्वज्ञानविकासिनी' नामक एक सरल किंतु विशद टीका उपलब्ध होती है। नामभ्रम से बचने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि ये सिद्धसेनसूरि 'सन्मतितर्क' के रचयिता सिद्धसेन दिवाकर (चतुर्थ शती), तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के लेखक सिद्धसेनगणि (सातवीं शती), न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि (नौवीं शती) से भिन्न हैं। ये चंद्रगच्छीय आचार्य अभयदेवसूरि की परम्परा में हुए हैं। इन्होंने प्रस्तुत टीका के अंत में अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है- अभयदेवसूरि - घनेश्वरसूरि - अजितसिंहसूरि - वर्धमानसूरि - देवचंद्रसूरि - चंद्रप्रभसूरि - भद्रेश्वरसूरि - (136)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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