________________ प्रवचन सारोद्धार की भूमिका (ई.सन् १३वीं शती) प्रवचनसारोद्धार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, जैन धर्म एवं दर्शन का सारभूत, किंतु आकर ग्रंथ है। इसका विषय वैविध्य एवं कर्ता की व्यापक संग्राहक दृष्टि, इसे जैनविद्या के लघु विश्व-कोष की श्रेणी में लाकर रख देती है। वस्तुतः, यह एक संग्रहग्रंथ है, जिसमें जैनविद्या के विविध आयामों को समाहित करने का लेखक ने अनुपम प्रयास किया। यद्यपि इसके पूर्व आचार्य हरिभद्र सूरि (विक्रम संवत् की आठवीं शती) ने अपने ग्रंथ अष्टक षोडशक, विशिका, पंचाशक आदि में जैन धर्म, दर्शन और साधना के विविध पक्षों को समाहित करने का प्रयत्न किया है, फिर भी विषय वैविध्य की अपेक्षा से ये ग्रंथ भी इतने व्यापक नहीं है, जितना प्रवचनसारोद्धार है। इसमें 276 द्वार हैं और प्रत्येक द्वार एक-एक विषय का विवेचन प्रस्तुत करता है, इस प्रकार प्रस्तुत कृति में जैन विद्या से . सम्बंधित 276 विषयों का विवेचन है। इससे इसका बहुआयामी स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। प्रस्तुत कृति 1599 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। मात्रा गाथा (श्लोक) क्रमांक 971 संस्कृत में है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। छन्दों की अपेक्षा से इसमें आर्या छन्द की ही प्रमुखता है, यद्यपि अन्य छन्द भी उपलब्ध होते हैं। इस कृति के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा में ई.पू. छठी शती से लेकर ईसा की तेरहवीं शती तक लगभग दो हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में प्राकृत में ग्रंथ लेखन की जीवित परम्परा रही है। मात्र यही नहीं, इसके पश्चात् आज तक भी प्राकृत भाषा में ग्रंथ लिखे जा रहे हैं, जो जैन विद्वानों की प्राकृत के प्रति प्रतिबद्धता के सूचक हैं। प्रस्तुत कृति के लेखक ने इसके अतिरिक्त अनन्तनाहचरियं नामक एक अन्य ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में लिखा है, इससे लेखक का प्राकृत भाषा पर अधिकार सिद्ध होता है। साथ ही प्रस्तुत कृति में विविध विषयों का संग्रह उसके कर्ता की बहुश्रुतता का भी परिचय देता है। प्रवचनसारोद्धार के रचयिता प्रवचनसारोद्धार नामक प्रस्तुत कृति के रचयिता आचार्य नेमिचंद्रसूरि हैं, किंतु ये नेमिचंद्रसूरि कौन हैं और कब हुए? इस सम्बंध में थोड़ी विस्तृत विवेचना अपेक्षित है। यद्यपि प्रवचनसरोद्धार की कर्ता प्रशस्ति में ग्रंथकार ने इसके रचना काल का (130