________________ निर्देश के साथ प्रस्तुत कृति समाप्त होती है। कृति के अंत में भवविरह' का निर्देश होने से यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि प्रस्तुत कृति याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की ही कृति है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने अपने तीन ग्रंथों श्रावकधर्मपंचाशक, श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपन्नति) तथा प्रस्तुत कृति के श्रावकधर्मविधिप्रकरण में श्रावक धर्म का विवेचन किया है। जहां एक ओर श्रावकधर्मपंचाशक मात्र 50 गाथाओं की संक्षिप्त कृति है, वहीं दूसरी ओर श्रावकप्रज्ञप्ति लगभग 400 गाथाओं में रचित एक विस्तृत ग्रंथ है। इसके विपरीत श्रावकधर्मविधि प्रकरण 120 गाथाओं में रचित एक मध्यम आकार की कृति है। इस कृति का वैशिष्ट्य यही है कि इसमें जहां श्रावक के व्रतों की चर्चा के साथ-साथ सम्यक्त्व की चर्चा पर्याप्त विस्तार से की गई है। जहां तक मेरी जानकारी है, अभी तक इस ग्रंथ का कोई भी अनुवाद उपलब्ध नहीं था। प्राकृत भारती अकादमी ने इस ग्रंथ का हिन्दी व अंग्रेजी अनुवाद करवाकर उसे प्रकाशित करने का एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ और प्राकृत भारती अकादमी ने मिलकर आचार्य हरिभद्र के विभिन्न ग्रंथों की अनुवाद सहित प्रकाशन की योजना बनाई है वह सफल हो और मध्ययुग के इस उदारचेता समदर्शी महर्षि आचार्य हरिभद्र की कृतियों से जन-जन लाभान्वित हो यही एक मात्र अपेक्षा है। अंत में मैं प्राकृत भारती के निदेशक महोपाध्याय विनयसागरजी के प्रति आभार प्रकट करता हूं कि उन्होंने प्रस्तुत कृति की भूमिका के लिए न केवल मुझे आग्रह किया, अपितु मेरी व्यक्तिगत व्यस्तताओं के कारण दीर्घकाल तक इसकी प्रतीक्षा भी की। प्रस्तुत कृति के अनुवाद में अपेक्षित परिष्कार एवं संशोधन मैंने अपनी अल्पमति के अनुसार करने का प्रयत्न किया है, फिर भी भूलें रह जाना सम्भव है, अतः विद्वानों से अनुरोध है कि वे अपने सुझावों से हमें लाभान्वित करें, ताकि भविष्य में और भी अपेक्षित परिमार्जन किया जा सके।