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________________ अर्थात् अणुव्रतों आदि को ग्रहण करने की भावना वैकल्पिक हो सकती है, किंतु ऐसे व्यक्ति को भी सेवा एवं स्वाध्याय आदि तो नियम से करना ही चाहिए। आचार्य यह भी मानते हैं कि एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर संसार समुद्र को पार करने के लिए नौका के समान व्रत आदि भी कालान्तर में अवश्य ही प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व की चर्चा के उपरांत प्रस्तुत कृति में पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों की चर्चा की गई है। इस संदर्भ में आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण न करके उपासकदशा के क्रम का अनुकरण किया है। मात्र अंतर यह है कि यहां उपासकदशा में अणुव्रत एवं शिक्षाव्रत ऐसा द्विविध वर्गीकरण है, वहां आचार्य हरिभद्र ने कालान्तर में विकसित अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत ऐसा त्रिविध वर्गीकरण किया है। श्रावक के व्रतों की इस चर्चा के प्रसंग में प्रस्तुत कृति में आचार्य हरिभद्र ने श्रावक को किस व्रत का परिपालन, कितने योगों और कितने कारणों से करना होता है, इसकी विस्तृत चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र ने करण और योग के संदर्भ में कुल भंगों की संख्या 49 मानी है, उसको भी अतीत, अनागत और वर्तमान के साथ गुणित करने पर कुल 147 भंग माने हैं और यह भी बताया है कि भरतक्षेत्र के मध्यखण्ड के बाहर अनुमतिनिषेध के तीन भंग कम करने पर स्वयं के विषय में 144 भंग होते हैं। यहां यह भी चर्चा की गई है कि भरतक्षेत्र के बाहर श्रावकों के भी सर्वव्रत साधु के समान ही तीनकरण और तीनयोग से ही होते हैं। ज्ञातव्य है कि योग (साधन) तीन हैं- 1. मन, 2. वचन और 3. काया। इनके संयोग से कुल सात भंग (विकल्प) होते हैं। यथा- 1. मन, 2. वचन, 3. काया, 4. मन और वचन, 5. मन और काया, 6. वचन और काया तथा 7. मन, वचन और काया। इसी प्रकार करण भी तीन हैं- 1. करना, 2. कराना और 3. अनुमोदन। इनके भी सांयोगिक भंग सात ही होंगे यथा- 1. करना, 2. कराना, 3. अनुमोदन, 4. करना और कराना, 5. करना और अनुमोदन करना, 6. कराना और अनुमोदन करना तथा 7. करना, कराना एवं अनुमोदन करना। इस प्रकार सात योग और सात करण को परस्पर गुणित करने पर उनपचास (7X7F49) भंग होते हैं। ये उनपचास भंग भी तीन करणों की अपेक्षा से एक सौ सेंतालीस (49X 3 = 147) भंग हो जाते हैं। . इस चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में आचार्य ने श्रावक के बारह व्रतों और उनके प्रत्येक के अतिचारों की विस्तृत चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र ने भी सामान्यतया तो उन्हीं अतिचारों की चर्चा की है, जो अन्य ग्रंथों में भी वर्णित हैं। हरिभद्र के द्वारा वर्णित अतिचारों की यह सूची उपासकदशा से बहुत कुछ मिलती है, किंतु कुछ अवधारणाओं को (127)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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