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________________ दिया है। यद्यपि प्रस्तुत कृति में हमें कहीं भी ऐसे संकेत उपलब्ध नहीं होते हैं, जिससे यह कथा क्या है, इसका विवेचन कर सकें। इसी क्रम में निर्विचिकित्सा अंग की चर्चा करते हुए कहा गया है कि विचिकित्सा अर्थात् घृणा भी दो प्रकार की मानी गई है, एक देश विषयक और दूसरी सर्व विषयकवि-चिकित्सा को स्पष्ट करते हुए आचार्य ने कहा है कि चैत्यवंदन व्रतपालन आदि अनुष्ठान सफल होंगे या निष्फल होंगे अथवा इनका फल मिलेगा या नहीं? ऐसी कुशंका को विचिकित्सा कहा जाता है, किंतु सामान्यतया विचिकित्सा का तात्पर्य जैन साधु के मलिन शरीर या वस्त्रादि को देखकर घृणा करना। पूर्व में स्वयं आचार्य हरिभद्र ने विचिकित्सा के इसी अर्थ का निर्देश किया है, किंतु प्रस्तुत प्रसंग में उन्होंने विचिकित्सा का एक नया अर्थ दिया है। विचिकित्सा के संदर्भ में आचार्य ने श्रद्धाहीनश्रावक और विद्या की साधना करने वाले चोर का उदाहरण तथा प्रत्यन्तवासी श्रावक पुत्री की कथा का निर्देश भी किया है। अमूढदृष्टि दर्शनाचार का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने बताया है कि बौद्ध आदि इतर धर्मालम्बियों की विभिन्न प्रकार की साधना विधियों के प्रति आकर्षित नहीं होना एवं उनके पूजा, सत्कार आदि को देखकर भ्रान्त नहीं होना ही अमूढ़दृष्टि हैं। विशिष्ट तप करने वाले, वृद्ध, ग्लान, रोगी, शैक्ष आदि की सेवा शुश्रूषा करने वाले विनयवान एवं स्वाध्यायी मुनियों की प्रशंसा करना अपबृंहण है। इसी प्रकार धर्ममार्ग से च्युत होते हुए व्यक्तियों को पुनः धर्ममार्ग में स्थिर करना स्थरीकरण है। वस्तुतः यह धर्मसाधना के क्षेत्र में खिन्न हुए व्यक्तियों को प्रोत्साहित कर उन्हें साधना में प्रतिकेत करना है। स्वधर्मीवात्सल्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि स्वधर्मी जनों के प्रति वात्सल्य या अनुराग रखना, कष्ट के समय उनकी सहायता करना स्वधर्मीवात्सल्य है। आचार्य ने अमूढदृष्टि के प्रसंग में सुलसा श्राविका की, उपबंहण के संदर्भ में राजा श्रेणिक की, स्थिरीकरण के प्रसंग में आषाढ़ाचार्य और वात्सल्य के प्रसंग में वज्रस्वामी की कथाओं का निर्देश किया है। अंतिम प्रभावना अंग की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि विभिन्न प्रकार की लब्धियों (ऋद्धियों), विविध प्रकार की विद्याओं (तंत्र-मंत्र आदि), अष्टांगज्योतिष निमित्तशास्त्र आदि में पारंगत होकर उनके माध्यम से जिनशासन की प्रभावना करना सम्यक-दर्शन का प्रभावना अंग है। आचार्य ने यहां यह भी बताया है कि सम्यक्त्व का बोध होने पर भी व्रत प्रतिपत्ति
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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