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________________ आठवीं प्रतिमा का स्वरूप - सात दिनों की इस प्रतिमा में चौविहार उपवास, पारणे में आयम्बिल करते हुए सात दिन गांव के बाहर रहकर देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बंधी उपसर्गों को समभाव से सहन करना चाहिए। नौवीं प्रतिमा का स्वरूप - यह प्रतिमा भी आठवीं के समान ही है, अंतर इतना ही है कि इसमें साधु को उत्कटुक आसन में बैठना, टेढ़ी लकड़ी के समान सोना या लकड़ी की तरह लम्बा होकर सोना पड़ता है। अतः इनमें से किसी एक स्थिति में रहकर उपसर्गों को समभावपूर्वक सहना चाहिए। ___दसवीं प्रतिमा का स्वरूप - इसमें उपर्युक्त प्रतिमा की तरह ही गोदोहिका, वीरासन या आम्रफल की तरह टेढ़ा- किसी भी एक आसन में रहकर उपसर्गों को सहन करना होता है। इस प्रकार ये तीनों प्रतिमाएं 21 दिन में पूरी होती हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा का स्वरूप - यह प्रतिमा एक दिन-रात्रि की है। इसमें चौविहार दो दिवस (बेले) का तप करना होता है। उपवास में चार समय का भोजन तथा आगे-पीछे के दिनों में एकासन करने से एक-एक समय.का भोजन, इस प्रकार कुल छः समय के भोजन का त्यागकर ग्राम के बाहर कायोत्सर्ग मुद्रा में तीन दिनों तक यह प्रतिमा-प्रक्रिया चलती है। . बारहवीं प्रतिमा का स्वरूप - यह भी एक रात्रि की प्रतिमा है। इसमें चौविहार अर्थात् तीन दिन तक निर्जल उपवास करना, अट्ठम तप, कायोत्सर्ग मुद्रा, स्थिर दृष्टि, शरीर के सभी अंगों में स्थिरता आदि इस तप की विशेषताएं हैं। प्रथम रात्रि के बाद अट्ठम तप करने से यह चार दिनों की होती है। प्रतिमाकल्प के विषय में आचार्यों के बीच मतभेद देखने को मिलता है। कुछ आचार्यों का मानना है कि प्रतिमाकल्प में प्रतिमा के गुरु-लाघव के विषय में विधिवत् विचारणा नहीं हुई है, क्योंकि प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधु गच्छ से निकलकर प्रतिमा को स्वीकार करता है, जबकि तपादि तो गच्छवास और गच्छनिर्गमन- दोनों में समान रूप से किया जा सकता है। इस दृष्टि से गच्छनिर्गमन कम लाभप्रद है, क्योंकि उससे केवल साधु का अपना उपकार होता है। इसका समाधान करते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि यह प्रतिमाकल्प केवल विशेष साधुओं के लिए ही है, सर्वसाधारण के लिए नहीं, क्योंकि दशपूर्वधर आदि के लिए प्रतिमाकल्प वर्जित है, अतः वे केवल गच्छ में रहकर ही उपकारक होते हैं। इसलिए प्रतिमाकल्प में गुरु-लाघव आदि की विचारणा नहीं हुई है, यह कहना उचित नहीं है। इस समस्या सम्बंधी दूसरी युक्ति को प्रस्तुत करते हुए (118)
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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