________________ अष्टादश पंचाशक अट्ठार पंचाशक में 'भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि' का वर्णन हुआ है। अर्हन्तों ने मासिकी आदि बारह भिक्षु प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। विशिष्ट क्रिया वाले साधु का प्रशस्त अध्यवसाय रूपी शरीर ही प्रतिमा है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार मासिकी, द्विमासिकी, त्रैमासिकी, चतुर्मासिकी, पंचमासिकी, षष्ठमासिकी, सप्तमासिकी- ये एक महीने से प्रारम्भ होकर क्रमशः दो, तीन, चार, पांच, छः और सात महीने तक पालन करने योग्य सात प्रतिमाएं हैं। आठवीं, नौवीं और दसवीं प्रतिमा सप्तदिवसीय तथा ग्यारहवीं और बारहवीं प्रतिमा एक दिवस-रात्रि की होने से कुल बारह प्रतिमाएं होती हैं। संहननयुक्त, धृतियुक्त, महासात्त्विक, भावितात्मा, सुनिर्मित, उत्कृष्ट से थोड़ा कम दस पूर्व और जघन्य से नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का श्रुतज्ञानी, व्युत्सृष्टकाय, त्यक्तकाय, जिनकल्पी की तरह उपसर्ग सहिष्णु, अभिग्रह वाली एषणा लेने वाला, अलेप आहार लेने वाला, अभिग्रहपूर्वक उपाधि लेने वाला साधु ही गुरु से आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं को धारण कर सकता है। गच्छ से निकलकर ही इन मासिकी आदि प्रतिमाओं को स्वीकार किया जाता है। शरद-ऋतु में शुभयोग होने पर सभी साधुओं से क्षमायाचना कर गच्छ से निकलकर साधु इन प्रतिमाओं की साधना करता है। मासिक प्रतिमा का स्वरूप (एक से सात तक)- एक महीने तक भोजन की एक ही दत्ति लेनी चाहिए अर्थात् एक बार में धार टूटे बिना पात्र में जितना भोजन गिर जाए वह एक दत्ति है। इसी प्रकार पानी की भी एक ही दत्ति लेना चाहिए। भिक्षा देने वाले को भिक्षा लेने वाले की दत्ति का पता न चले, किसी एक एषणा से भोजन ले, चिकनाई रहित आहार लें, एक ही घर से आहार लें...... आदि इस प्रकार 21 नियमों (अभिग्रहों) का पालन साधु को एक महीने तक एक गांव से दूसरे गांव में परिभ्रमण करते हुए इस मासिकी प्रतिमा का वहन करना चाहिए। एक मास पूर्ण होने पर ही वह साधु जिस गांव में गच्छ हो, उसके समीप के गांव में आए, तब आचार्य उस साधु की पूरी तरह से जांच करके, राजा को उसकी सूचना देकर, इस साधु की प्रशंसा करते हुए गच्छ में प्रवेश कराते हैं। इसी प्रकार द्विमासिकी, त्रैमासिकी, चतुर्मासिकी, पंचमासिकी, षष्ठमासिकी, सप्तमासिकी प्रतिमाओं का भी पालन किया जाता है। इनमें क्रमशः महीने के साथ-साथ दत्ति की वृद्धि होती है, जैसे- दूसरी प्रतिमा में दो मास तक दो दत्ति, तीसरी प्रतिमा में तीन मास तक तीन दत्ति इत्यादि। (117