________________ आवश्यक नहीं है। ___ मासकल्प - चातुर्मास के अतिरिक्त एक स्थान पर एक महीने से अधिक नहीं रहने का आचार मासकल्प कहलाता है। प्रथम और अंतिम जिनों के साधुओं के लिए मासकल्प स्थितकल्प है अर्थात् वे एक स्थान पर एक मास से अधिक नहीं रह सकते, क्योंकि अन्यथा दोष लगता है, जबकि मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के लिए मासकल्प अस्थित है अर्थात् वे एक मास से अधिक भी एक स्थान पर रह सकते हैं। प्रथम और अंतिम जिनों के साधुओं द्वारा मासकल्प का पालन नहीं करने पर प्रतिबद्धता, लघुता, जनोपकार, आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं। इसलिए मासकल्प द्रव्यतः न हो सके, तो भावतः अवश्य करना चाहिए। मासकल्प की ही भांति पर्युषणाकल्प भी होता है। जघन्य और उत्कृष्ट की दृष्टि से पर्युषणाकल्प दो प्रकार का होता है और भाद्रपद शुक्ल पंचमी से कार्तिक पूर्णिमा तक कुल सत्तर दिन (70 दिन) रात का जघन्य पर्युषणाकल्प होता है। कल्पों का उपर्युक्त स्थित-अस्थित विभाजन सकारण ही है। काल के प्रभाव से साधुओं के स्वभाव में भिन्नता होती है। इसलिए जिनेश्वरों ने उनकी स्थित-अस्थित कल्प रूप मर्यादा की है। ऋजु-जड़ता आदि से युक्त जीवों का भी चारित्र जिनेश्वरों के द्वारा जाना गया है। वे प्रव्रज्या के योग्य होते हैं, क्योंकि स्थिर और अस्थिर- इन दो प्रकार के भावों में से ऋजु-जड़ जीवों के स्थिर भाव शुद्ध होते हैं। अस्थिर भाव तथाविध सामग्री से अशुद्ध होता है, किंतु वह अशुद्धभाव चारित्र का घात नहीं करता है। जिस प्रकार प्रथम जिन के साधुओं का स्खलन उनके चारित्र का बाधक नहीं है, उसी प्रकार अंतिम जिन के साधुओं का स्खलन भी काल के प्रभाव के कारण चारित्र का बाधक नहीं है, क्योंकि वे प्रायः मातृस्थान अर्थात् मायारूप संज्वलन कषाय का सेवन करते हैं, न कि अनन्तानुबंधी कषाय का। क्योंकि यदि माया अनन्तानुबंधी कषायसम्बंधी हो तो वे व्यक्ति श्रमणत्व (साधुता) को ही प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिए साधु के सभी अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से ही होते हैं। अनन्तानुबंधी आदि बारह कषायों के उदय से तो सर्वविरति रूप चारित्र धर्म का मूलतः नाश हो जाता है। संज्वलन कषाय रूप माया से उत्पन्न अतिचार चारित्र का घातक नहीं है। अतः अतिचार हो तो भी अंतिम जिन के साधुओं को सम्यक् चारित्र होता है। अतः जो संसार भीरु हैं, गुरुओं के प्रति विनीत हैं, ज्ञानी हैं, जितेन्द्रिय हैं, जिन्होंने कषायों को जीत लिया है, संसार से विमुक्त होने में यथाशक्ति तत्पर रहते हैं, वे वस्तुतः साधु हैं।