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________________ औद्देशिक - साधु के निमित्त से जो आहार बना हो वह औद्देशिक कहलाता है। औद्देशिक आहार प्रथम और अंतिम जिनों के सभी साधुओं के लिए ग्रहण करने के योग्य नहीं है। मध्यवर्ती जिनों के साधुओं में जिस संघ या साधु के निमित्त बना है, वह उस संघ या साधु के द्वारा ग्राह्य नहीं है, शेष साधुओं द्वारा ग्राह्य है। शय्यातरपिण्ड - शय्यातर का अर्थ होता है- साधुओं के उपाश्रय या ठहरने का स्थान देने वाला। अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, रजोहरण और कम्बल, सुई, चाक, नाखून काटने का साधन और कान का मैल निकालने का साधन आदि शय्यातरपिण्ड के कुल बारह प्रकार हैं। जिनों के साधुओं के लिए शय्यातरपिण्ड ग्राह्य नहीं होता है। राजपिण्ड - अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरणये आठ प्रकार के राजपिण्ड कहे गए हैं। प्रथम, अंतिम, मध्यवर्ती और महाविदेह क्षेत्र के सभी जिनों के साधुओं के लिए यह पिण्ड ग्रहण करना वर्जित है, क्योंकि इससे व्याघात आदि दोष लगते हैं। कृतिकर्म - अभ्युत्थान और वंदन के भेद से कृतिकर्म दो प्रकार का होता है। अभ्युत्थान का अर्थ होता है- आचार्यादि के आने पर सम्मान-स्वरूप खड़े हो जाना और वंदन का अर्थ होता है- द्वादशावर्त से वंदना करना। साधु एवं साध्वती दोनों को वरिष्ठताक्रम के अनुसार कृतिकर्म करना चाहिए। . . व्रत- प्रथम और अंतिम जिनों के साधुओं के लिए पांच महाव्रतों वाला चारित्रधर्म होता है और शेष जिनों के साधुओं के लिए चार महाव्रत (चातुर्याम) का चारित्र धर्म होता है। पांच महाव्रत और चार महाव्रत रूप वचन भेद से दो प्रकार का होने पर भी यह कल्प परमार्थ से एक प्रकार का ही है और सभी के लिए पालनयी है। ज्येष्ठ - महाव्रतों का आरोपण होना उपस्थापना है। प्रथम और अंतिम जिनों के साधुओं में उपस्थापना से ज्येष्ठता मानी जाती है, अर्थात् जिसकी बड़ी दीक्षा पहले हो वह ज्येष्ठ माना जाता है। मध्य जिनों के साधुओं की सामायिक चारित्र की दीक्षा से ही उनकी ज्येष्ठता मानी जाती है, किंतु यह तभी हो सकता है, जब उनका चारित्र अतिचार रहित हो। प्रतिक्रमण और आवश्यक कर्म - प्रथम और अंतिम जिनों के साधुओं के अतिचार लगे या न लगे, गमन, आगमन और विहार में सुबह-शाम छः आवश्यक रूप प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। मध्य के जिनों के साधुओं को दोष लगे तब प्रतिक्रमण करना चाहिए। दोष न लगने पर मध्य के जिनों के साधुओं के फिर प्रतिक्रमण करना
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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