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________________ गुणस्थान में स्थित अप्रमत्तसंयत साधुओं को उत्कृष्ट से आठ मुहूर्त का और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की स्थिति का बंध होता है। वस्तुतः, छद्मस्थ को सभी अवस्थाओं में कर्मबंध होता है, क्योंकि छद्मस्थ वीतरागी को भी मनोयोग आदि होते हैं। इसलिए उन्हें विराधना की शुद्धि करना आवश्यक है। अतः आलोचनादि प्रायश्चित्त सहित आगमोक्त अनुष्ठान कर कर्म के अनुबंध का छेदन करने वाले निर्दोष होते हैं। जिस दोष का प्रायश्चित्त किया गया हो, प्रायः उसे फिर से न किया जाए, अच्छी तरह से किए गए प्रायश्चित्त का लक्षण है। सप्तदश पंचाशक सत्रहवें पंचाशक में 'कल्पविधि' का वर्णन है। कल्प दो प्रकार के हैं - (1) स्थितकल्प और (2) अस्थितकल्प। स्थितकल्प वे हैं जो सदैव आचरणीय होते हैं। अस्थित कल्प किसी कारण से आचरणीय होते हैं और किसी से नहीं। सामान्यतः आचेलक्य आदि के भेद से कल्प के दस प्रकार होते हैं - 1. आचलेक्य, 2. औद्देशिक, 3. शय्यातरपिण्ड, 4. राजपिण्ड, 5. कृतिकर्म, ६:व्रत (महाव्रत), 7. ज्येष्ठ, 8. प्रतिक्रमण, 9. मासकल्प, 10. पर्युषणाकल्प। ये दस कल्प प्रथम और अंतिम जिनों (तीर्थंकरों) के शासन-काल के साधुओं के लिए स्थितकल्प होते हैं और मध्यवर्ती बाईस जिनों (तीर्थंकरों) के साधुओं के लिए, इनमें से छः कल्प अस्थित होते हैं और चार कल्प स्थित होते हैं। आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मासकल्प और पर्युषणाकल्प- ये छः मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के लिए अस्थित कल्प होते हैं तथा शेष चार कल्प मध्यकालीन जिनों के साधुओं के लिए भी स्थित ही होते हैं। स्थित कल्प का पालन अपरिहार्य होता है। अस्थित कल्प का पालन वैकल्पिक होता है। आचेलक्य आदि कल्प का स्वरूप निम्नलिखित है आचेलक्य - आचलेक्य नग्नता को कहा जाता है, लेकिन वस्त्र न होने और अल्प वस्त्र, दोनों ही स्थिति आचेलक्य की स्थिति होती है। वस्त्र का न होना तो अचेलकता को स्पष्ट करता है, लेकिन सवस्त्र भी निर्वस्त्र है, स्पष्ट नहीं होता है। जैसा कि इस पंचाशक में आया है, अल्पमूल्य के फटे कपड़ों के होने पर अचेल ही कहा जाता है। यह बात लोक-व्यवहार और आगम-न्याय- इन दोनों से सिद्ध होती है। लोक में जीर्ण वस्त्र को 'वस्त्र नहीं है' ऐसा माना जाता है, क्योंकि वह विशिष्ट कार्य का साधक नहीं होता है। आगमवचन से भी श्वेत जीर्णवस्त्र होने पर उसे वस्त्रहीन ही समझा जाता है।
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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